Thursday, November 26, 2009

सहमति का विवेक


मोहित बाबु
नमस्कार
व्यक्तिगत कारणों से आपके पत्र का जवाब लिखने में इतना वक़्त लगा | क्षमा चाहुंगा |
अब आ जाया जाय सीधे मुद्दे पर |
बंधू मैं आपकी भावनाओं का सम्मान करता हूँ | यहाँ आपको सही करना चाहुंगा कि चत्रधर महतों पकडे गए थे न कि मारे गए थे |

खुशी हुई जानकर कि पुलिस के तौर-तरीके पर आपको भी आपत्ती है | मतलब व्यवस्था में खोट आपको भी नज़र आता है | आपने कहा है कि नक्सलियों के घिनौने कार्य से भी आपको आपत्ती है, तो बंधुवर आपको बता दूँ कि हमले की शुरुआत वो नहीं करते हैं | उन्हें आपत्ती है सरकार के नुमाइंदे से जिनके द्वारा प्रायोजित हिंसा की जाती है |

पिछले दिनों बस्तर में कोबरा फोर्स ने 12 माओवादियों और 18 निर्दोष लोगों को मार डाला था | वहीं आंध्र में जब माओवादियों के केन्द्रीय सदस्य राज्य के मुख्य सचिव से मिलने जा रहे थे तो उनकी ह्त्या कर दी गयी | तो क्या गलत होता है जब माओवादी जवाबी कार्रवाई करते हैं |

अगर हम आम जन-मानस की बात करें तो साहब क्या आपको नहीं लगता है कि इन माओवादियों को आदिवासियों का स्नेह और समर्थन मिलता रहा है | और अगर ये आदिवासी और दबे-कुचले लोग उनका समर्थन करते हैं तो इसके कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कारण भी हैं |

जब बंगाल में प्रति व्यक्ति न्युनतम मजदूरी 85 रु थी तो इन आदिवासियों को मात्र 22 रु दिए जाते थे | कागज़ मील मालिक 50 पैसे प्रति बण्डल के हिसाब से बांस खरीदते थे, माओवादियों ने इनकी आवाज को उठाया इनके हक के लिए लड़ा | आज वही मील मालिक उसे 55 रु प्रति बण्डल खरीदने लगा है | देश के करीबन 1200 ऐसे गावं हैं जहाँ के लोगों को प्रतिदिन इनके द्वारा स्वास्थ्य की सेवाएँ मुहैया करवाई जाती है |
जनाब लालगढ़ के लोग तो सरकार से एक अदद अस्पताल मांगते-मांगते थक गए, उन्हें मिला नहीं | जब चन्दा-चुटकी कर लोगों ने अस्पताल बनवा लिया तो उसे सेना की छावनी बना दि गयी |

सिर्फ सरकार ही नहीं हमारी सामाजिक व्यवस्था भी उतनी ही दोषी है | बड़े शहरों में रहकर हम ये अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि दूर गावं में सर्वहारा कैसे गुजर-बसर करता है |
बिहार के डुमरी गावं की घटना है पलटू (जाति से जुलाहा है) ने अपनी छठी क्लास में पढ़ रही बच्ची की शादी कर दिया क्यूंकि वहाँ के ही एक राजपूत के लौंडे ने उसके घर में घुस कर उसके साथ जिस्मानी सम्बन्ध बनाने की कोशिश की थी | कोई चारा न देख उसने बच्ची की शादी करने में ही भलाई समझी |
जा कर देखिये जनाब प्रखंड और ब्लॉक द्वारा दिए जाने वाले अनाज को जिससे लाल कार्ड और पीले कार्ड वाले अपनी भूख मिटाते हैं | हम और आप पैकेट बंद चावल खाने वाले उसे देखेंगे तक नहीं |

समुचित समाधान के लिए हार हाल में व्यवस्था को बदलना ही होगा, सर्वहारा के कम से कम जीने योग्य ज़िन्दगी के बारे में सोचना ही होगा, हमको और आपको | नहीं तो ये क्रान्ति अनवरत जारी रहेगी |
फैज़ साहब कि ये पंग्ति याद रखियेगा, कि….

"जब अर्जे खुदा के काबे से सब बुत उठ्बाये जायेंगे
हम अहले सफा, मरदूदे हरम, मसनद पे बिठाए जायेंगे
सब तख्त गिराए जायेंगे, सब ताज उछाले जायेंगे "


देर-सबेर ये पंग्तियाँ अक्षरशः सत्य साबित होंगी |

Tuesday, November 24, 2009

असहमति का साहस


"हत्यारा कौन" शीर्षक नाम से लिखा गया मेरा आलेख जो मेरे ब्लॉग के अलावा भड़ास पर भी छापा था |
वहीं पढने के बाद मोहित जी का ये पत्र मुझे मिला जो इस प्रकार है |
पत्र सिर्फ औऱ सिर्फ शशि सागर जी के लिए है... जिन्होंने बाकायदा नक्सलियों के हक़ में तर्क प्रस्तुत किए हैं... इन्हें कुछ पत्रकार तर्क कह सकते हैं और कुछ कुतर्क... मैं न बड़ा हूं और न बड़ा पत्रकार... लेकिन इनकी राय से इत्तेफाक बिल्कुल नहीं रखता हूं... और उम्मीद है शशि जी इसका सम्मान भी करेंगे... शशि जी को छत्रधर महतो के मारे जाने और उसके तरीके पर आपत्ति है... शशि जी को लालगढ़ में पुलिस की घेराबंदी पर आपत्ति है...बिहार में पुलिस के तौर तरीकों पर आपत्ति है... मुझे भी है... लेकिन इसके जवाब में नक्सलियों जैसे घिनौने काम से भी उतनी ही आपत्ति है... वे चाहे जिस खेत में लाल झंडा गाड़ दें... गांधी के बजाए माओ त्से तुंग और अपना भगवान मान लें... 5-6 साल के बच्चों को बांध कर गोली से उड़ा दें... लेकिन फिर भी उन्हें सहानुभूति करने वाले लोग मिल ही जाएंगे... ये सहानुभूति उनके लिए च्यवनप्राश का काम करती है जो उन्हें सभ्य समाज और कानून जैसी बीमारियों से बचा कर रखती है... शशि जी... मैं बिहार-झारखंड-उड़ीसा-छत्तीसगढ़ इत्यादि का नहीं हूं... इसे दुर्भाग्य समझिए या सौभाग्य नक्सलियों से पाला नहीं पड़ा... हां बौद्धिक नक्सलियों और आतंकवादियों से इस मीडिया में औसतन हर तीसरे दिन दो चार होता रहा हूं... उनमें से कुछ नक्सलियों को सही ठहराते हैं... कुछ माओवादियों और रणबीर सेना को... कुछ राज ठाकरे और कुछ ओसामा बिन लादेन और तालिबान को...
आपने सही प्रश्न उठाया... आखिर नक्सली बंदूक उठाते ही क्यों हैं... आखिर ऐसी क्या ज़रूरत आन पड़ती है उन्हें जो वो हिंसा के रास्ते पर चलते हैं... लेकिन इसी से जुड़ा सवाल है कि तालिबान... बोड़ो... और अब तो सेना के कुछ लोग भी ऐसा क्यों करते हैं... मैं गांधीवादी नहीं हूं... लेकिन लादेनवादी भी नहीं हूं... मेरी भावनाएं कईं हैं... लेकिन उन्हें अभी उजागर नहीं करूंगा... अगर आपका जवाब आया तो करूंगा... फिलहाल आपकी कविता के जवाब में मेरी कविता

हक़ कत्ल का जबसे जताने लगे हैं
कुछ गुंडे नक्सली कहाने लगे हैं...
काश कि सबकी नियत साफ होती
रोटी के बदले कुछ गोली चलाने लगे हैं...
हवन की आहुतियों में हाथ जला तो
आग को ही दुश्मन बताने लगे हैं
कहीं विरोध की आंख खुल न जाए
सरे-आम बच्चों ढहाने लगे हैं...
शोषितों की कमज़ोरियां का फायदा उठाने
तालिबान खुद को भारतीय बताने लगे हैं

एक के बदले जब तीन नहीं दिए
गला काट कर नाम सज़ा-ए-मौत सजाने लगे हैं
कि जिनके पास नहीं रोटी व ज़मीन
आखिर कहां से वो बारूद लाने लगे हैं
सरहद पार से कुछ उनके दोस्त
लाल रंग भिजवाने लगे हैं...
बुरा मत मानिएगा... लेकिन वो आपकी भावनाएं थीं... ये मेरी हैं... दोनों को अपनी बात कहने और अहसास करने का हक़ है...अब भी बुरा लग रहा हो तो mohitmishra1@gmail.com पर गुस्सा उतार लें...
मोहित
(इस पत्र का जवाब लिखा जा चुका है, अगले पोस्ट में जवाब भी प्रकाशित कर दी जायेगी)

Sunday, October 4, 2009

हत्यारा कौन .....?


बहस खूब चल रही है छत्रधर मह्तों के पकडे जाने के तरीके को लेकर । पत्रकारिता के प्रबुद्ध्जनो ने भी उसे हत्यारा करार दिया । लेकिन मुझे लगता है कि इस बहस मे कुछ छूटता जा रहा है ।
क्या ये बहस का मुद्दा नहीं होना चाहिए कि आखिर छत्रधर जैसों को बन्दूक उठाने की जरूरत क्यूँ पड़ती है | और क्यों उनका पोषण किया जाता है तब तक जब तक कि पानी नाक तक नहीं आ जाता | आखिर क्या कारण है कि आदिवासी समाज और राजनीति की मुख्यधारा से अलग हैं |

शालबनी में इस्पात कारखाने के शिलान्यास के उपरांत मुख्यमंत्री को लक्षित कर बारूदी सुरंग का विस्फोट किया जाता है | इसके बाद पुलिस के साथ-साथ माकपा के अतिउत्साही कार्यकर्ता तो मानो पूरे इलाके को माओवादी मान बैठते हैं | पूरे लालगढ़ की घेराबंदी कर दी जाती है और शुरू होता है अत्याचार और उत्पीडन का घिनौना कृत्य | तो सवाल उठता है कि क्या सैकडों गावों के हजारों आदिवासी, माओवादी हो गए थे और उन्हें मार कर कौन सी स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा की जा रही थी |

इसी घटना के बाद छत्रधर की अगुआई में "जनसाधारण पुलिस संत्रास विरोधी कमिटी" का धरना प्रदर्शन शुरू होता है | यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ममता के साथ-साथ उस समय वहां के कुछ बुद्धिजीवियों का भी छत्रधर को समर्थन प्राप्त था | भले ही ममता मंत्री बनने के बाद अपना मुंह फेर ली हो | इसे तृणमूल की दोगली नीति ही कही जायेगी और पौ-बारह तो केंद्र की है जिसने वाम को ही वाम के खिलाफ खडा कर दिया है |

भाई साहब हथियार उठाने का शौक किसे होता है | ये तो समाज और व्यवस्था के सताए हुए हैं |
मुझे याद आ रहा है, मैं जमुई(बिहार) अपने एक संबन्धी के यहाँ गया हुआ था | खेत में काम कर रहे एक मजदूर से मैंने पूछा कि आपलोग माओवादियों को संरक्षण क्यों देते हैं ? थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कुछ यूँ कहा, "क्या करें साहेब कभी बाबुओं से परेशां होत हैं कभी ये पुलिस वाले (उस गावं में सी.आर.पी.ऍफ़ की छावनी है ) तंग करते हैं | मैदान(शौच) को जाती है महिला लोग तो जबरदस्ती करते हैं साहेब ये पुलिस वाले" ! और ऐसी कई घटनाएं आपको देखने और सुनने को मिल जायेंगी |

मेरा तो बस यही कहना है कि बहस इसपे भी होना चाहिए कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है, क्यों नहीं इन्हें मुख्यधारा में आने दिया जाता है ?
और फिर इन मुद्दों पर विचारविमर्श हमारे बरिष्ठ नहीं करेंगे तो कौन करेगा |
मुझे कुछ शेर याद आ रहा है कि ,

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे हैं
उंगलियाँ उठाने लगे हैं

हक जबसे जताने लगे हैं
नक्सली कहलाने लगे हैं

व्यवस्था को वैकल्पिक रास्ता चुनना ही होगा, नहीं तो कब तक दबाओगे इनकी आवाज को और कब तक मिटाओगे इन्हें | ये फिर संगठित होंगे और लडेंगे व्यवस्था से अपने अधिकार और अपनी इज्ज़त के खातिर |


Thursday, September 24, 2009

प्रेम या पूर्वाग्रह

बरसों बाद उनसे,
हो रही थी बात |
वही खनकती आवाज,
वही सादगी आज भी |
दूर होते हुए भी हो रहा था,
आत्मीयता का आभास |
थोड़ी हडबडाहट थी उनमे,
जैसे पूछ लेना चाहती हो,
सबकुछ चंद समय में |
बड़ी ही उत्सुकता से बताया,
अपनी बच्ची नाम,
जो कि बिल्कुल वही था,
जिसकी कभी हम कल्पना करते थे |
बातों ही बातों में बनाते थे घर,
और रखते थे सबके नाम |
हंसते हुए बोल पडी,
कितना अच्छा है संयोग,
कि हो रही है आपसे बात |
मैंने पुछा, दुबारा...फिर...कब.......
आह भरती हुई कहती गयी,
हो जाया करेगा ऐसा ही संयोग |
खुश हूँ मैं भी इस संयोग पर,
लेकिन कहूँ क्या इसे,
प्रेम या पूर्वाग्रह .............|

Sunday, September 13, 2009

तुमसे मिलने को सागर क्यूँ ऐसी चाहत होती है

जब कहीं किसी चेहरे पर शराफत होती है
बर्षों से सहेजी पास उसके आदमियत होती है

वो बैठती है इस कोने मैं उस कोने में बैठता हूँ
यूँ ही मचलता नहीं मैं सब मूक इजाज़त होती है

अपनी तबियत ही ऐसी है हार मानेगी कहाँ
बारहा दिल टूटता है बारहा मुहब्बत होती है

कलेजा फटता है कैसे ये ज़रा देख लेना
बाबुल के घर से कैसे बेटी रुख्सत होती है

समझाते हैं भोले मन से कितना प्यारा लगता है
घरवालों से कभी-कभी बच्चों को शिकायत होती है

महाजन धमकता है द्वार पर माह के शुरुआत में
क्या बताऊँ यार तब कैसी फजीहत होती है

है समर्पण का भाव कैसा कि अस्तित्व भी मिटा लेते
तुमसे मिलने को सागर क्यूँ ऐसी चाहत होती है

Monday, September 7, 2009

बिना तजुर्बे के सागर कोई निदान नहीं होगा

उसे इस सन्दर्भ अब तक संज्ञान नहीं होगा
थोडा मनचला है पर बेशक बेईमान नहीं होगा

रिश्तों में विश्वास है स्नेह यहाँ पनपते हैं
मेरा घर, घर रहेगा मकान नहीं होगा

अभी उम्र उसकी है माँ-बापु से कहता हूँ
वो हमसे छोटा है, क्या शैतान नहीं होगा

अगर सरकार चाही, तो निसंदेह मेरे भाई
कोई कमजोर नहीं होगा, कोई बलवान नहीं होगा

हाथ जोड़ मालिक कहता है जो भी तुम्हें
उसके दिल में तेरे लिए सम्मान नहीं होगा

हम अबीर भी उडाते हैं और सेवइयां खूब खाते हैं
मेरा गाँव कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान नहीं होगा

उसे नींद आयेगी कैसे इस गरीब-खाने में
इक चारपाई है जो दीवान नहीं होगा

जवानी के दहलीज पर वो कदम रखा है अभी-अभी
बिना तजुर्बे के सागर कोई निदान नहीं होगा

Friday, September 4, 2009

है वजन नहीं सागर अब तेरे बहर में

हाथ फैलाए फिरता हूँ अब शहर में
तरस खाए कोई मुझपे इक नज़र में

तेरी सल्तनत खुदा हो तुझी को मुबारक
फल-फूल, पत्ती मेरा कुछ भी नहीं तेरे शज़र में

पहचान एक-एक कर दे गए सभी
मिलते रहे हैं जो भी, अब तक सफ़र में

इरादे को अटल रखना था मुमकिन नहीं
ले गया वक़्त बहा के अपनी लहर में

मुंह छिपाए फिरता हूँ मुफलिसी के कारण
बन गया हूँ अजनबी आज अपने ही घर में

गाना तो दूर कोई पढ़े भी न अब तुझे
है वजन नहीं सागर अब तेरे बहर में

Tuesday, September 1, 2009

चले आते हैं लोग बिन बुलाए हुए

वो पल उनके साथ बिताये हुए
हर ख़ुशी हर ग़म आजमाए हुए

मरहम लगाने का रिवाज़ कुछ ऐसा है
चले आते हैं लोग बिन बुलाए हुए

मेरे हो जाते हैं जो भी आते हैं यहाँ
सब हुनर उनके ही हैं सिखाये हुए

सिलवटें बिस्तर की देख सोचता हूँ
आयेंगे वो कभी बिन बताये हुए

ठगा सा लग रहा हूँ आज ऐसे
कुछ बच्चे हों जैसे फुसलाये हुए

सब्र कर ले कुछ तू ही सागर
लगते हैं लोग सब बौराए हुए

Saturday, August 29, 2009

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे है

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे है
उंगलियाँ उठाने लगे हैं

हक जबसे जताने लगे हैं
नक्सली कहलाने लगे हैं

कुछ मुसहर मेरे गाँव के
हाथ-पाँव फैलाने लगे हैं

मंदिर बना तकते थे दूर से
अब वो भी हवन कराने लगे हैं

बाबुओं की नींद उचट गयी
इंसानियत अब बताने लगे हैं

शोषित थे जो सदियों से सागर
ख्वाब वो अब सजाने लगे हैं

Friday, August 28, 2009

अंतरकलह और भाजपा


भाजपा और विवाद में चोली-दामन का सम्बन्ध है | यह इसकी जन्मजात समस्या है जो इसके साथ बनी रहेगी | अगर भारत की राजनैतिक पार्टियों पर नज़र डालें तो यही पता चलता है कि राजनैतिक पार्टियां पहले अस्तित्व में आतीं हैं फिर ये अपने संगठनों का निर्माण करती हैं | परन्तु भाजपा के सन्दर्भ में उल्टा है | संघ ने अपने राजनैतिक सरोकारों को पूरा करने के लिए भारतीय जनता पार्टी का गठन किया |
भारतीय जनता पार्टी संघ की इतनी ऋणी है कि यह कभी भी स्वतंत्र रूप से साँस ही नहीं ले पायी है | पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपयी यदा-कदा अपने स्वतंत्र तेवर दिखाने के प्रयास जरूर किये परन्तु उन्हें भी अंततः संघम शरणम् होना ही पडा |
भाजपा बड़ी ही इमानदारी से इस बात को स्वीकार करता है कि तीन सांसदों (१९५२) से शुरू होने वाली इस पार्टी के पास अगर ११६ (२००९) हैं तो वो संघ के बदौलत ही | परन्तु इतनी ही इमानदारी से इसे य भी स्वीकार करना होगा कि अब भारतीय जनता को हिन्दुत्व की परिभाषा और विचारधारा स्वीकार्य नहीं है |
भाजपा का कोई न कोई बड़ा नेता अक्सर और बेवजह इस बात का उद्घोष करता रहता है कि संघ ही उसका प्रमुख है और संघ की विचारधारा ही उसकी विचारधारा है | और दूसरी ही साँस में यह भी कहता नज़र आता है कि हिंदुत्व की अवधारणा को इक्कीसवीं सदी के अनुसार व्याख्यायित किया जाय | इस उद्घो के साथ भाजपा का आत्मसंशय और अपराधबोध साफ़ झलकता है |
अगर हाल के मुद्दों पर गौर करें तो इतना ही प्रतीत होता है कि इसका हर निर्णय बौखला और बौरा कर लिया गया है | भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की निर्णय क्षमता में ही दोष है, और इस बात से किनारा नहीं किया जा सकता है |
उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाना कहाँ तक जायज था, जबकी राजनीति में उन्हें आये दो दशक भी नहीं हुए हैं | | और फिर हार की जिम्मेदारी उनपर थोपते हुए निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया जाना, सब केन्द्रीय नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप | अगर वहां के कार्यकर्ता और आम जनता के नब्ज टटोली जाय तो आज भी भगत सिंह कोशयारी वहां के सबसे स्वीकार्य नेता हैं |
बसुन्धरा को बिपक्ष के नेता पद से हटाने की कवायद, यह जानते हुए कि विधायकों का एक बड़ा कुनबा उनके साथ है, हास्यास्पद निर्णय ही लगता है |
अगर हार की जिम्मेवारी लेने और थोपने का इतना ही शौक है, तो शीर्ष नेतृत्व पार्टी की कमान नए चेहरों को क्यूँ नहीं सौंप रही है |
जसवंत सिंह जैसे बरिष्ठ नेता का निकाला जाना, इसी बात को इंगित करता है कि फिलहाल भाजपा मानसिक रूप से अस्वस्थ चल रही है |
लगभग सात सौ पन्नो की उनकी किताब को किसी ने ढंग से पढा भी नहीं होगा और उन्हें निष्कासित कर दिया गया | जसवंत सिंह को इस तरह से दुत्कारा गया कि पार्टी में एक के बाद एक बड़े नेता बगावती बिगुल फूँक रहे हैं |
जसवंत सिंह ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो कि पहले जिन्ना के बारे में न कहा गया हो | सालों पहले डा० अजीत जावेद द्बारा लिखित पुस्तक "जिन्ना की त्रासदी" में इन सब बातों का उल्लेख है | आखिर सच को स्वीकारने में भाजपा को इतनी परेशानी क्यूँ हो रही है |
पहले तो भाजपा खुद तय करे की उसकी विचारधारा क्या है | इस बात को लेकर आम जनता ही नहीं पार्टी के नेताओं में भी संसय बना हुआ है |
पद की लोलुपता को छोड़ कर शीर्ष नेता अब कांग्रेस का विकल्प बनने की सोचे | और यह तभी संभव है जब भाजपा में संघी और गैर संघी के बीच की खाई को पाटा जाय |

Monday, August 24, 2009

क्या कभी बन पाउँगा इनके जैसा बाप

पूछते हैं कभी-कभी
मुझसे मेरे बापू
देता हूँ उनको सलाह
ख़ुशी होती है मुझे
की होती है मेरी भी भागेदारी
घर आपने किसी भी निर्णय में
आखिर मैं भी तो पहनता हूँ
जूता उनके ही नाप का
लगभग बापू के जितना है
चौड़ा मेरा भी सीना
पर लगता है थोडा अंतर तो है
जहाँ मैं हो जाता हूँ ब्याकुल
विचित्लित,हताश और परेशान
वहीँ उन्हें पाटा हूँ
धीर,शांत बिल्कुल गंभीर
विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी
होने ही नहीं देते हैं
किसी भी परेशानियों का आभास
देते रहते हैं खुशियों की घनी छाया
बिल्कुल गावं के पुराने बरगद की तरह
सोंचता हूँ क्या कभी बन पाउँगा
मैं भी इनके जैसा बाप
क्या ला पाऊंगा कभी
ऐसा ही वय्क्तित्व

Thursday, August 20, 2009

मैं तेरा पिया नहीं

कह दिया सबसे, ग़म को पिया नहीं
मानते नहीं मैं तेरा पिया नहीं

जिंदगी को तलाशते-तराशते
पता चला अब तक जिया नहीं

तुम रूठो मैं मनाऊं फिर से
बहुत दिनों से मुहब्बत किया नहीं

जाँचूँ-परखूँ है ज़रुरत ही क्या
मैं राम नहीं तो तुम भी सिया नहीं

अब तक का हिसाब बराबर है शायद
उधार में मैंने मुहब्बत किया नहीं

आतीं हैं कि आना है जायेंगी कहाँ
सागर को आज-तक किसी ने दिया नहीं

Wednesday, August 19, 2009

मुहब्बत कौन निभाएगा

बाद मसरूफियत के जो प्यार बच पायेगा
दंगे धमाके से वो भी कुचला जायेगा

गर इसी तरह नफरत के बीज बोए जायेंगे
मैं गुलाल किसे लगाऊंगा तू गले किसे लगायेगा

कुछ सेवैयाँ खरीद लाया हूँ बाजार से
पर उसमें इदी का प्यार कैसे आएगा

उसे फिक्र है बदनाम हो न जाऊँ कहीं मैं
वो मुसलमान है पता नहीं कब पकड़ा जायेगा

सरियत की बातें करता है आस्था की दुहाई देता है
बता सागर ऐसे में मुहब्बत कौन निभाएगा

:- द्वैमासिक पत्रिका "परिंदे" के अगस्त-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित |

Sunday, August 16, 2009

प्रेम का सागर

जो प्रेम दिल में पनपा था
सब भाव-विह्वल मन का था

चंचल-नटखट भोली सि सूरत
बस देख मन पुलकित होता था

वो प्रेम की स्वाति किरण सि थी
मैं प्यासा चातक दीखता था

वो पुष्प की कोमल पंखुडी सी
मैं बूंद ओस सा लिपटा था

हौले से जब कुछ कहती थीं
मैं मंद-मंद मुस्काता था

वो शशि सि शीतल लगती थी
मैं चकोर सा उनको ताकता था

कुछ कहते-कहते थीं सो गयी वो
सिरहाने मैं उनके बैठा था

वात्सल्य था एक प्रेम में उनके
और मैं बालक बन जता था

मैं अकिंचन करता भी क्या
बस प्रेम का सागर रखता था

बस क्या था, माँ गुस्सा हो गयी

मैंने कहा, मुहब्बत हो गयी
बस क्या था, माँ गुस्सा हो गयी

समझाऊं आखिर कैसे उन्हें
जाने किन ख्यालों में खो गयी

भविष्य के पन्नो को देखते पढ़ते
रात फिर से किसी संशय में सो गयी

स्नेह उनका उन्हें मना ही लिया
थोडा डाँटी, फिर मेरे ही संग हो गयी

गोद में गलतियाँ था सुना रहा मैं
और वो ममता का सागर हो गयी

Thursday, August 13, 2009

मुझे तुमसे प्यार नहीं

वो कहती हैं,
मुझे तुमसे प्यार नहीं|
मैं कुछ नहीं जानती,
भुला दिया सबकुछ|
पूछ बैठा यूँ ही उनसे,
मोतियों की माला कहाँ है|
जरूरत थी मुझे,
जवाब था, पहन रखी हूँ|
मेरे कमरे से एक दिन,
चाय की प्याली लाई थी,
कहाँ है जरूरत थी मुझे|
मेरे ही पास है,
मैं उसी से चाय पीती हूँ|
फिर वो कहने लगी,
मुझे तुमसे प्यार नहीं|

भूलूँ या फिर याद रखूं

मैं नहीं कहता,
मुझे प्यार करो|
मिलो-जुलो मुझसे,
मेरी जरूरतों को पूरा करो|
मैं तो करता भी नहीं,
चर्चा कभी तुम्हारी|
हाँ रोकता नहीं उन्हें,
जो तुझे मुझमे देखते हैं|
बेशक तुम भूल जाओ,
मुझे, मेरी यादों को,
तुम्हारे ही हित में होगा|
आत्म संयम ये तुम्हारा,
जायज है तुम्हारे लिए|
जब मुझे नहीं कोई दिक्कत,
तुम्हारे किसी भी निर्णय से |
फिर तुम्हें क्या है परेशानी,
मैं भूलूँ या फिर याद रखूं|

Wednesday, August 12, 2009

हम बदले हैं कितने

बचपन की शरारतें
अल्हड़पन और नटखाटें|
देखकर मुस्कुराती थी,
कभी-कभी प्यारी चपत,
भी लगाती थी माँ |
वक़्त के साथ-साथ ,
हम बदले हैं कितने,
और हमारी शरारतें भी|
कभी खेलते थे गलियों में,
अब भावनाओं से खेलते हैं|
अब हम कांच नहीं,
दिल तोड़ने लगे हैं|
बदली तो है माँ भी,
अब प्यार भरी चपत नहीं लगाती|
बस घुटती है अपने ही अन्दर,

Tuesday, August 11, 2009

तुझको ग़ज़ल लिखूं

तुझको कमल लिखूं या तुझको ग़ज़ल लिखूं
पाकर तुझे मैं जिंदगी को अब सफल लिखूं


मैं जानता ही कुछ नहीं इसके सिवा सनम
आज तो है तू मेरा तुझको ही कल लिखूं


तू ही मेरी किस्मत है उस खुदा का शुक्रिया
जिंदगी को अब तो मैं सुन्दर सरल लिखूं


शब्दों में तुझको अब मैं बांधूंगा क्या भला
ममता का तुझको मैं अब बस आँचल लिखूं


दूरियों का क्या भला मुहब्बत से वास्ता
पास तुझको ही लिखूं तुझको बगल लिखूं


क्या लिखा है किस्मत में इसकी फिक्र किसे
तेरे नाम जिंदगी का इक-इक पल लिखूं


तारीफ तेरी क्या करूँ मुझको पता नहीं
लिखता हूँ जब भी तुझको मैं तो धवल लिखूं


हिज्र अब लिखूं या प्रेम मैं लिखूं
सागर बता तेरे लिए कैसी ग़ज़ल लिखूं

काश मैं जवान नहीं होता

परेशान, व्यथित रहती है,
इनदिनों मेरी माँ |
पूजा, अर्चना, हवन,
टोना-टोटका न जाने क्या-क्या |
इन्हीं चीजों में व्यस्त,
खुद का ख्याल ही नहीं रखती |
कह दिया उनसे एक दिन,
अम्मा अपना ख्याल रखिये,
थोडा परहेज किया कीजिये |
मेरे ख़त्म होते ही बोल पडी,
तुम्हें अच्छी नौकरी मिल जाये,
तेरा घर बस जाये बस,
सबकुछ छोड़ दूंगी |
बुढी हो गयी हूँ न अब,
जब तक हूँ दुआ कर लूं |
इस उम्र में इतनी परेशानी,
इतना कष्ट मेरे लिए |
सोंचता हूँ काश मैं जवान नहीं होता,
तो अम्मा कभी बुढी नहीं होती |

देखा-सुनी