Sunday, October 4, 2009

हत्यारा कौन .....?


बहस खूब चल रही है छत्रधर मह्तों के पकडे जाने के तरीके को लेकर । पत्रकारिता के प्रबुद्ध्जनो ने भी उसे हत्यारा करार दिया । लेकिन मुझे लगता है कि इस बहस मे कुछ छूटता जा रहा है ।
क्या ये बहस का मुद्दा नहीं होना चाहिए कि आखिर छत्रधर जैसों को बन्दूक उठाने की जरूरत क्यूँ पड़ती है | और क्यों उनका पोषण किया जाता है तब तक जब तक कि पानी नाक तक नहीं आ जाता | आखिर क्या कारण है कि आदिवासी समाज और राजनीति की मुख्यधारा से अलग हैं |

शालबनी में इस्पात कारखाने के शिलान्यास के उपरांत मुख्यमंत्री को लक्षित कर बारूदी सुरंग का विस्फोट किया जाता है | इसके बाद पुलिस के साथ-साथ माकपा के अतिउत्साही कार्यकर्ता तो मानो पूरे इलाके को माओवादी मान बैठते हैं | पूरे लालगढ़ की घेराबंदी कर दी जाती है और शुरू होता है अत्याचार और उत्पीडन का घिनौना कृत्य | तो सवाल उठता है कि क्या सैकडों गावों के हजारों आदिवासी, माओवादी हो गए थे और उन्हें मार कर कौन सी स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा की जा रही थी |

इसी घटना के बाद छत्रधर की अगुआई में "जनसाधारण पुलिस संत्रास विरोधी कमिटी" का धरना प्रदर्शन शुरू होता है | यह बात किसी से छिपी नहीं है कि ममता के साथ-साथ उस समय वहां के कुछ बुद्धिजीवियों का भी छत्रधर को समर्थन प्राप्त था | भले ही ममता मंत्री बनने के बाद अपना मुंह फेर ली हो | इसे तृणमूल की दोगली नीति ही कही जायेगी और पौ-बारह तो केंद्र की है जिसने वाम को ही वाम के खिलाफ खडा कर दिया है |

भाई साहब हथियार उठाने का शौक किसे होता है | ये तो समाज और व्यवस्था के सताए हुए हैं |
मुझे याद आ रहा है, मैं जमुई(बिहार) अपने एक संबन्धी के यहाँ गया हुआ था | खेत में काम कर रहे एक मजदूर से मैंने पूछा कि आपलोग माओवादियों को संरक्षण क्यों देते हैं ? थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कुछ यूँ कहा, "क्या करें साहेब कभी बाबुओं से परेशां होत हैं कभी ये पुलिस वाले (उस गावं में सी.आर.पी.ऍफ़ की छावनी है ) तंग करते हैं | मैदान(शौच) को जाती है महिला लोग तो जबरदस्ती करते हैं साहेब ये पुलिस वाले" ! और ऐसी कई घटनाएं आपको देखने और सुनने को मिल जायेंगी |

मेरा तो बस यही कहना है कि बहस इसपे भी होना चाहिए कि आखिर इसके पीछे कारण क्या है, क्यों नहीं इन्हें मुख्यधारा में आने दिया जाता है ?
और फिर इन मुद्दों पर विचारविमर्श हमारे बरिष्ठ नहीं करेंगे तो कौन करेगा |
मुझे कुछ शेर याद आ रहा है कि ,

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे हैं
उंगलियाँ उठाने लगे हैं

हक जबसे जताने लगे हैं
नक्सली कहलाने लगे हैं

व्यवस्था को वैकल्पिक रास्ता चुनना ही होगा, नहीं तो कब तक दबाओगे इनकी आवाज को और कब तक मिटाओगे इन्हें | ये फिर संगठित होंगे और लडेंगे व्यवस्था से अपने अधिकार और अपनी इज्ज़त के खातिर |


देखा-सुनी