Monday, April 26, 2010

लाल, लाल और हर जगह लाल होगा


अगर हालात नहीं बदलने वाला है

ये हंगामा भी कहां थमने वाला है

चीख कर घोषणा ये संसद में हुई

जंगलों का महल अब उजड़ने वाला है

सोचो अमंबानियों के हित मे जम कर

आक्रोश अभी और ये धधकने वाला है

कभी तूने कभी उसने है किया लाल

आवाम की कौन यहां सुनने वाला है

वो स्तन काटे, वो रेप करे, हम चुप रहें

तब कहेंगे ये हिंदुस्तान संवरने वाला है

कुपोषण, भूख, प्यास तुम क्या जानोगे

बैठ के दिल्ली से कहां ये दिखने वाला है

सत्ता के लोभ में जो भी इनके पास थे

कहने लगे जख्म नासूर बनने वाला है

लाल, लाल और हर जगह लाल होगा

तेरा रवैया गर नहीं सुधरने वाला है

Thursday, April 1, 2010

शिक्षा और व्यवस्था का रवैया

व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास और उसकी संभावनाओं को अनंत आकाश देने के लिये शिक्षा का होना अनिवार्य है । अनिवार्य होने से यहाँ मेरा तात्पर्य है कि शिक्षा हमारा मौलिक अधिकार हो ।
कहने को तो हमारा देश दुनियां का सबसे बडा लोक्तांत्रिक देश है, परन्तु आज़ादी के साठ साल बाद भी शिक्षा हमारे मौलिक अधिकार में शामिल नहीं हो पाई है ।
किसी कस्बे, जिले या युँ कहें कि देश का विकास प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से वहां के शैक्षणिक व्यवस्था पर निर्भर करती है ।
भारत को युवाओं का देश कहा जाता है, एक आंकलन के मुताबिक कुल जनसंख्या का 54 प्रतिशत हिस्सा 35 वर्ष से कम आयु का है । इसका मतलब यह हुआ कि और देशों की तुलना में यहाँ काम करने को ज्यादा हाथ और दिमाग हैं । परन्तु यह एक नंगा सत्य है कि इसी 54 प्रतिशत आबादी का बहुत बडा हिस्सा आज भी बुनियादी शिक्षा से भी वंचित है, जिसमें बच्चे भी शमिल हैं । आंकडा यह है कि देश की साक्षरता दर मात्र 65% है और 30 करोड कि आबादी निरक्षर है । इसी बात से अंदाजा लगया जा सकता है कि हमरा देश विकास की ओर किस गति से बढ रहा है ।
आज हमारा देश क्षेत्रवाद, जातिवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी कई समस्याओं से जूझ रहा है । इसका बस सीधा सा मतलब है कि कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था में शिक्षा का लोप होना शुरु हुआ है । आज घर के ही लोग घर हो आग लगाने पर आमादा हुए बैठे हैं । दिनकर जी की ये पंग्ति कि “जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है” इस घडी में चरितार्थ होती दिख रही है । आखिर शिक्षा ही तो हमारी सदबुद्धि, विवेक और साकारात्मक सोच की जननी है ।
और हाँ इस बात से भी किनारा नहीं किया जा सकता है कि देश की राजनीति घोर अवसरवादि हो गयी है, नहीं तो महिला आरक्षण विधेयक और शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल करने का मुद्दा अभी तक अधर में नहीं लटका रहता ।
लोकसभा में मुफ़्त एंव अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2008 पारित किया गया । संविधान संशोधन 2002 द्वारा एक अनुच्छेद 21(अ) और संविधान मे जोड दिया गया । यह अनुच्छेद राज्य को 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा के लिये जिम्मेवार बनाता है ।
ऐसा माना जात है कि राज्यसभा जनता के हितों के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करती है परन्तु जब इस विधेयक को पारित किया जा रहा था तो सदन की उपस्थिति मात्र 54 थी । और राष्ट्रीय महत्व के इस विधेयक को तो लोकसभा में मात्र दो घंटे मे ही पारित कर दिया गया । इतने महत्वपूर्ण विधेयक पर ऐसी उदासीनता चिंतनिय ही नहीं निंदनीय भी है ।
शिक्षा मंत्री सिब्बल साहब इस विधेयक पर बोलते समय बडे ही गौरवान्वित महसूस कर रहे थे । जबकि सच्चाई है कि उन्होने कोई नया काम नहीं किया है सिर्फ जनता को मूर्ख बनाया है । बडी ही चालाकी से उन्होंने इस सच्चाई से जनता को मरहूम रखा कि सुप्रिम कोर्ट ने उन्नीकृष्णन फैसले के आधार पर पहले ही 0-14 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार दे दिया है । अब आप ही बतायें कि उन्होनें नया क्या किया । हाँ Public Privet Partnership का नया जुमला जरूर सामने आया । और आता भी क्यों नहीं कॉरपोरेट घरानों से लेकर राजनीतिक घरानों तक सभी के तो स्कुल, कॉलेज और युनिवर्सिटिज के धंधे हैं ही ।
विचारणिय प्रश्न तो यह है कि उन्होनें किस आधार पर 14 वर्ष तक के बच्चों के लिये ही अनिवार्य शिक्षा की घोषणा की, जबकि इसी देश में एक साधरण नौकरी के लिये भी अनिवार्य आहर्ता 12वीं पास की ही होती है ।
1990 में “सभी के लिये शिक्षा” के वैश्विक सम्मेलन में बुनियादी शिक्षा प्रदान करने की प्रतिबद्धता अपनाई गयी थी परन्तु इतने सालों के बाद भी भारत ही नहीं कई देश इस लक्ष्य से पीछे चल रहे हैं ।
शिक्षा को मौलिक अधिकार में शामिल करना जरूरी ही नहीं नितांत आवश्यक है । प्रारंभिक शिक्षा को अनिवार्य तथा तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा को सर्व सुलभ बनाने की जरूरत है ।
यह कटु सत्य है कि शिक्षा के प्रति ऐसी उदासीनता सही नहीं है । यही हाल रहा तो देश की गुण्वत्ता का ह्राष होगा ही यह अपनी समस्या में और भी उलझता चला जायेगा ।
तस्वीर: अनुप मिश्रा

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