Friday, October 21, 2011

रथ यात्रा के बहाने ..............!


भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित जन चेतना यात्रा की शुरुआत क्रांति पुरूष जयप्रकाश नारायण की जम्न स्थली सिताबदियारा से की गयी. 11 अक्टूबर 2011 को शुरू हुई इस जन चेतना यात्रा को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया. इस मौके पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली, बिहार के उप- मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सहित अनंत कुमार और रविशंकर जैसे भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता भी उपस्थित थे. इस रथ यात्रा में आडवाणी को उनके परिवार का भी साथ मिल रहा है. रथ यात्रा के दौरान आडवाणी की पत्नी कमला आडवाणी और बिटिया प्रतिभा आडवाणी भी उनके साथ होंगी. भापजा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सुशासन और स्वच्छ राजनीति के उद्देश्य से भ्रष्टाचार के खिलाफ इस रथ यात्रा की शुरुआत की गई है. 11 अक्टूबर से 20 नवंबर तक चलने वाली इस रथ यात्रा के द्वारा एक बार फिर आडवाणी एनडीए गठबंधन के पक्ष में जनाधार तैयार करने का प्रयास करेंगे. इस दौरान अपनी विभिन्न जनसभाओं द्वारा आडवाणी संप्रग गठबंधन में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर भी करेंगे. हालांकि इस रथ यात्रा का एनडीए गठबंधन के अलावा सभी राजनीतिक दलों ने राजनीति स्टंट तथा सत्ता में दुबारा आने की कोशिश मात्र करार दिया है. ज्ञात हो कि इससे पूर्व भी आडवाणी ने पांच और रथ यात्राएं की हैं, जिनका एनडीए गठबंधन को कभी कभार फायदा भी हुआ है. लेकिन ज्यादातर मौकों पर आडवाणी अपनी रथ यात्रा के द्वारा जनसमर्थन प्राप्त कर पाने में असफल ही रहे हैं. अब यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि विभिन्न समस्याओं से जूझ रही संप्रग गठबंधन की सरकार को आडवाणी और कितना उलझा पाते हैं. और संप्रग गठबंधन के विरूद्ध जनसमर्थन प्राप्त करने में सफल हो भी पाते हैं या नहीं.

उम्मीद लगा बैठे हैं सिताबदियारा के लोग

दुबारा सत्ता में आने के बाद भी अब तक विकास की हवा सिताबदियारा से होकर नहीं बही थी. यह तो भला हो आडवाणी का जिनकी घोषणा के बाद सरकार की नींद टूटी और सिताबदियारा के काया पलट देने की कवायद आनन-फानन में शुरू की गई. रथ यात्रा की तिथी जैसे-जैसे नजदीक आने लगी उपर-उपर ही सही स्थिती बदलने जरूर लगी.

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि सिताबदियारा कि आबादी 20 हजार है जिसमें कुल नौ हजार मतदाता हैं. बताते चलें कि यहां कुल 11 प्राथमिक विद्यालय, 3 मघ्य विद्यालय और एक हाई स्कूल है. आभावों के बावजूद भी यहां के लोग शिक्षा को लेकर जागरूक हैं, तभी तो यहां के बच्चे गांव की शिक्षा खत्म होते ही पास के यूपी महाविद्यालय में दाखिला लेने से नहीं हिचकते हैं.

जेपी आंदोलन की उपज रहे वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद या कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की बागडोर संभाल चुके राम बिलास पासवान हों किसी ने अब तक उस ओर रूख नहीं किया. जेपी के नाम पर अपना परचम लहराने वाले श्री प्रसाद को तो अब उनकी जन्मस्थली तक जाने की फूर्सत ही नहीं मिली है. श्री जेपी ने अपनी पत्नी प्रभावती के नाम पर 1960 में एक पुस्तकालय का निर्माण करवाया था. आज उस पुस्तकालय में दो सौ पुस्तकें भी नहीं हैं. बताते चलें कि नीतीश कुमार का 10 फरवरी 2010 को यहां आना हुआ था, तब उन्होंने यह घोषणा की थी कि इस पुस्तकालय को मॉडल पुस्तकालय के रूप में विकसित किया जायेगा. लेकिन इस दिशा में अब तक एक भी कदम नहीं उठाये गए हैं. बचपन में जेपी जिस स्कूल में पढे थे वहां के शिक्षक अरूण कुमार बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं कि यहीं जेपी ने स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी. लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस है कि इस स्कूल को अब तक अपना एक भवन नहीं है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि अब तक उस गांव को जेपी की एक आदमकद प्रतिमा नसीब नहीं हुई है.

जेपी के गांव और उस इलाके में घूमते हुए आपको एक विरोधाभास भी देखने को मिलेगा. टहलते हुये अगर आप यूपी वाले उस हिस्से में चले जाते हैं जिसे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने बड़े प्यार से बसाया था और नाम दिया जयप्रकाश नगर. यह नगर इतनी खूबसूरती से बसाया गया है कि यहां आज भी जेपी और चंद्रशेखर को आप महसूस कर सकते है. जेपी की पत्नी के नाम पर एक खूबसूरत पुस्तकालय बनवाया गया है. जेपी अपनी पत्नी के साथ जिस घर में रहते थे वहां आज भी उनके कपडे, बेड, टूटे हुये चप्पल और उनसे जुड़ी हुई यादें सहेज कर रखी हुई हैं. तस्वीरों की एक लम्बी श्रृंखला भी लगाई गई है जिसे देखकर 74 के संपूर्ण क्रांति को आप समझ सकते हैं. लोगों में इस बात को लेकर भी मतभेद है कि जेपी का जन्म हुआ कहां था? जयप्रकाश नगर के रहने वालों का मानना है कि जेपी का जन्म ही यूपी वाले हिस्से में हुआ था, वहीं सिताबदियारा के बिहार वाले हिस्से के लोगों का मानना है कि जेपी का जन्म बिहार में हुआ था लेकिन उनके बचपन में ही गांव में प्लेग फैली थी जिसकी वजह से उनके घरवाले पांच किलोमीटर दूर जाकर यूपी के बलिया जिले में बस गये.

अब तक मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रहे सिताबदियारा के लोगों को आडवाणी के आने से एक दिन पहले बिजली नसीब हुई है. और रथ को रवाना करने तक मुख्यमंत्री ने एक के बाद एक कई घोषणऐं भी की. कम से कम आडवाणी इसके लिये तो धन्यवाद के पात्र हैं ही कि उनकी धोषणा के बाद ही सही सरकार ने सिताबदियारा का रूख तो किया। क्रांती की जननी रही इस धरती के लोगों की उम्मीदें कहां तक पूरी होती है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा.

लगा हुआ है यात्रा का चस्का

11 अक्टूबर को सिताबदियारा से शुरू हुई जन चेतना यात्रा आडवाणी की पहली रथ यात्रा नहीं है. इससे पूर्व भी आडवाणी विभिन्न मौकों पर 5 बार रथ यात्रा कर चुके हैं. 1990 के बाद आड़वाणी की यह छठी रथ यात्रा है.

कुछ बातें इस यात्रा को खास बना देती है. अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के उद्देश्य से सोमनाथ से 25 सितंबर 1990 को शुरु हुई यात्रा को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने रोक दी थी. आज उसी बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस रथ यात्रा को हरी झंडी दिखाई. खुद को प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार के रुप में पेश करने को लेकर भी यह यात्रा है. परोक्ष रुप से आडवाणी भी स्वीकार ही चुके हैं. वरना भ्रष्टाचार को लेकर इनकी पार्टी की छवी भी कोई साफ-सुथरी नहीं है. वेल्लारी बंधु, योदुरप्पा और निशंक जैसे कई चेहरे इनके भी पास हैं. वैसे चर्चा तो इस बात की भी है इस यात्रा के जरिये आडवाणी अपनी बेटी प्रतिभा को राष्ट्रीय राजनीति में प्रोजेक्ट करना चाहते हैं.

बहरहाल इस यात्रा से सिताबदियारा के लोग उम्मीद जरुर लगा बैठे हैं. वहां के लोगों को लगने लगा है कि विकास की बयार अब यहां भी बहेगी. इस यात्रा से कम से कम सिताबदियरा के लोगों का ही भला हो जाये वैसे देशहित के लिये कभी इनकी रथ यात्रा तो निकली नहीं है.

नोट:- अमित और विकास बाबू को विशेष धन्यवाद.

Monday, September 19, 2011

धोबी के कुत्ते सी हालत मेरी

बाबू जी मेरे वामपंथी विचारधारा के हैं. जाति, गोत्र, धर्म से उन्हें कुछ खास मतलब रखते नहीं देखा अब तक. यह उनका दिया हुआ संस्कार ही है कि मैं सामंती विचारधारा (कुछ एक घरों को छोड़ कर) वाले मुहल्ले में पले-बढे़ होने के बावजूद खुद को इस घटिया मानसिकता से अलग रख सका.

ऐसा नहीं है कि मेरा मुहल्ले के कनिष्ठों और वरिष्ठों से कोई सरोकार नहीं है. कईयों से बात-चीत भी होती है, बस औपचारिक. किसी से घनिष्ट संबंध नहीं हैं मेरे, लेकिन हां दूसरी जातियों में कई लोग मेरे बहुत ही अच्छे मित्र हैं. और यही वजह है कि मैं अपने मुहल्ले के लड़कों के लिये आलोचना का पात्र हूं. ऐसे कई मौके आये जब मैने अपने मुहल्ले के निर्णय का मुखर विरोध भी किया. मेरी नज़र में न मैं सवर्ण हुं न वो दलित. वो सिर्फ मेरे मित्र हैं, संबंधी हैं. अब तक मुझे उनसे ढ़ेर सारा प्यार-स्नेह भी मिलता रहा है. यही वजह है कि वंशानुगत संबंधों से इतर भी मेरे ढेर सारे रिश्ते हैं. लेकिन कुछ घटनाऎं ऎसी होती हैं जहां आपकी सोच, आपके सिद्धांत आप ही को गलत लगने लगते हैं.

पिछले दिनों मेरे चचेरे भाई की हत्या गांव में ही अपराधियों ने कर दी. मेरा भाई बेगुसराई पुलिस अधीक्षक कार्यालय के गोपनीय शाखा में तैनात था. अपने पिता का इकलौता संजीव हमसबों का अच्छा मित्र हुआ करता था. गांव में हम लड़कों का एक ग्रुप है. ये लड़के सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय भुमिका निभाते हैं. संजीव भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन सारी गतिविधियों में अब तक हमारे साथ हुआ करता था. पुलिस की नौकरी मे होने के बावजूद संजीव काफी मृदु स्वभाव का था. अभी हाल ही में उसने हम दोस्तों के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि एक कोचिंग सेंटर खोला जाय जहां गांव के आठवीं, नौवीं और दसवीं के गरीब बच्चों को मुफ्त में पढाया जायेगा और इसमें होने वाले सारे खर्च की जिम्मेवारी उसने खुद ली. अभी इसपर मंथन चल ही रहा था कि………………………….

तेरह अगस्त की उस रात को शायद मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. रक्षाबंधन के साथ-साथ उसी दिन उसकी इकलौती बेटी का पहला जन्मदिन भी था. इसी खुशी में भाई ने घर में एक छोटी सी पार्टी भी रखी थी. एक दिन पहले उसने भी मुझसे फोन पर बात की, काम की व्यस्तता की वजह से मैने आने में असमर्थता जाहिर की और समझा-बुझा कर उसे मना लिया.

मेहमानो को विदा करने के बाद अब दोस्तों की बारी थी. रात के करीब ग्यारह बज रहे होंगे, वह दोस्तों को छोड़ने गांव के ही चौक तक गया. लौटते क्रम में घात लगा कर बैठे तीन-चार अपराधियों ने उसे रोका और उसके सीने में गोलियां उतार दी. बिहार पुलिस का वह जवान वहीं मौके पर ढेर हो गया.

अभी तो पीहु के सर से बर्थ-डे वाला कैप भी नहीं उतरा था कि उसके सर से बाप का साया छीन लिया गया. अभी-अभी जिस घर में खुशियां मनायी जा रही थी अब वहां का दृश्य हृदयविदारक हो चला था. सूचना मिलते ही पुलिस कप्तान सहित जिले के कई आला-अधिकारी घटना स्थल पर पहुंचे. इलाके को सील करने के वजाय वे वहां ऐसे खड़े रहे जैसे सांप सूंघ गया हो.

घटना की सूचना मुझे भी दी गई और मैं पहली सुबह को ही घर पहुंच गया था. अपने होश-ओ-हवाश में न होने की वजह से मै काफी भला-बुरा बड़बड़ा रहा था, मेरे परिजन बेसुध पड़े हुए थे और दोस्तों में काफी रोष था. श्राध क्रम होने तक मैं भी घर पर ही रहा. इस बीच कई बार मैने सुशासन बाबू के उस सुकोमल और तथाकथित तेज-तर्रार पुलिस कप्तान से भी मिला. मैने कई बार उन्हें अपराधियों से जुड़ी पुष्ट-अपुष्ट खबरें भी दी. लेकिन अफसोस अपराधी अब तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. पुलिस कप्तान अब तक मुझे और मेरे परिजनों को तरह-तरह की सांत्वना ही दे रहे हैं. संजीव जितना आपका था उतना ही मेरा था, मैं अपराधियों को छोड़ुंगा नहीं, आपको न्याय जरूर मिलेगा……वैगेरह-वैगेरह.

खैर बात आगे बढती रही और मेरे चाचा को चार गवाह की जरूरत हुई. चाचा ने मेरे दो दोस्तों को भी गवाह बनाया. जैसे ही ये खबर मेरे दोस्तों को लगी उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी. साथ जीने- मरने की कसमें खाने वाले मेरे दोस्त, घटना के बाद मारे गुस्से के बदला ले लेने तक की बात कहने वाले मेरे दोस्त, आदर्श और समाज की नित नई परिभाषा गढने वाले मेरे दोस्त आज सब के सब बगलें झांक रहे थे. गवाह न गुजरने को लेकर सबके पास ढे़रों मजबूरियां थीं. बात वही हुई कि हर किसी को चंद्र शेखर आजाद अच्छे लगते हैं लेकिन कोई भी आजाद को अपने घर पैदा होने की कामना नहीं करता है.

आज किसे अपना कहुं, किसके सामने मदद के लिये हाथ फैलाऊं, सिधान्तों और उसूलों के कारण मैने जिसका साथ छोड़ दिया या फिर उसके सामने जिसने बिपत्ती की घड़ी में मेरा साथ छोड़ दिया. एक कहावत याद आ रही है धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का”, फिलहाल अपनी हालत मुझे धोबी के कुत्ते जैसी लग रही है.

Wednesday, July 20, 2011

दूध के धुले हम भी नहीं तुम भी नहीं


बेगूसराई की एक कवि गोष्ठी में सुना था, मैं कली कचनार होता, तो बिका बाजार होता। मैं अगर मक्कार होता, तो देश की सरकार होता। किन साहब की है पता नहीं। नेताओं के बारे में ऐसी राय रखने वाले ज्यादा से ज्यादा लोग आपको मिल जायेंगे। वजह हमें भी पता है और आपको भी, दोषी हम भी हैं और हमारे रहनुमा भी।

नीतीश ने दूसरी पारी की शुरुआत की। भ्रष्टाचार उन्मूलन को प्रतिबद्ध श्री कुमार ने विधायक निधी को समाप्त कर दिया, यह भी घोषणा कर डाली की जिन अधिकारियों के पास आय से अधिक सम्पत्ती होगी उनके बंगलों में स्कूल खोले जायेंगे। इस दिशा में उनका यह पहला कदम था। वाहवाही होने लगी, उनकी तारीफ में कसीदे भी गढ़े जाने लगे। देखना है नीतीश कब तक अपनी इस प्रतिबद्धता पर कायम रह पाते हैं। इंतजार रहेगा भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में उनके अगले कदम का।

भ्रष्टाचार का तो सबसे बड़ा उदाहरण सचिवालय ही है। यहां एक अदना सा काम भी बिना घूस के नहीं होता, वो भी खुल्लम-खुल्ला। मनचाहा ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिये क्लर्क से लेकर बाबू तक की जेबें गर्म करनी पड़ती है। यह नंगा सत्य किसी से छिपा नहीं है। जो जिस विभाग में है वहीं बस गया है। पोस्टिंग के दस पंद्रह साल बीत जाने के बाद भी इनके विभागों की बदली नहीं हुई है। निगरानी विभाग भी यहां जाने की जहमत नहीं उठाती। मुख्यमंत्री यहीं से झाड़ू लगाना शुरु करें तो ज्यादा बेहतर होगा।

पिछले साल निगरानी विभाग के द्वारा अमूमन बीस पच्चीस लोगों को रंगे हाथों पकड़ा गया। आरोप पत्र दाखिल नहीं हो पाने की वजह से आज सभी के सभी जमानत पर छूट अपने पद पर दुबारा काबिज हो गये हैं। नजीर के तौर पर जन वितरण प्रणाली को ही लें। यह पूरी की पूरी व्यवस्था ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। डीलर की निगरानी के लिये एमओ को लगाया गया, उसे भ्रष्ट होते देख एसडीओ फिर डीएसओ। हालत ये हुई कि अंकुश लगने के बजाय सबका कमीशन बंधता चला गया।

पिछले साल कैग ने जोधपुर के जिलाधीश कार्यालय का अंकेक्षण करने के बाद कहा था कि गरीबों को न्यूनतम वेतन देने के मकसद से शुरु हुई मनरेगा योजना मजदूरों के घर का दिया तो नहीं जला सकी लेकिन इन अधिकारियों के घरों का रंग-रोगन अवश्य हो गया। आज यहां भी मनरेगा में यही लूट मची हुई है। आये दिन इससे जुड़ी शिकायतें देखने सुनने को मिल जाती हैं। हालत यह है कि इंदिरा आवास से लेकर जाति प्रमाण पत्र बनवाने तक के लिये एक खास रकम मौखिक रूप से तय है और हम भी सहर्ष लेन-देन करते हैं।

हमारा सामाजिक खांचा ही ऐसा है कि हर आदमी जल्द से जल्द अमीर होना चाहता है। हमारी यही आपा-धापी हर गड़बड़ी की वजह है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गांव-गांव तक ले जाना जरूरी है। जरूरत है कि हम अपने दायित्वों के प्रति जिम्मेवार बनें। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक कदम हर नागरिक को उठाना होगा।

वक्त आ गया है कि हम समाज की दशा और दिशा खुद तय करें।

Saturday, April 16, 2011

ज़िंदगी की तलाश में ये कहां आ गए हम?

सामंजस्य बिठाना भी एक कला है. ज़िंदगी में कई ऎसे मोड़ आते हैं, जब इंसान सामंजस्य और समझौते में फर्क करना भूल जाता है. भागमभाग की इस जीवनशैली में हम सेल्फकंसंट्रेटेड होते चले जाते हैं. खुद को लेकर पनपता असुरक्षा का भाव हमें इतना कन्फाइंड कर देता है कि हमारे चाहने वाले धीरे-धीरे हमसे दूर होने लगते हैं. हम अपने चारों ओर एक काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं और ताउम्र ज़िंदगी जी लेने का बस नाटक करते रहते हैं.

प्रोफेशनलिज्म हमारी संवेदनाओं पर एक मोटी परत चढा देती है और धीरे-धीरे हम अपनी आवश्यक औपचारिकताओं को नज़रअंदाज करने लगते हैं. धीरे-धीरे हमसब स्वभाव से भी अवसरवादी हो जाते हैं. हमें सहकर्मियों से बात करने की फुरसत मिल जाती है. लाख व्यस्तताओं के बावजूद भी हम अपने बॉस को ग्रीट करना नहीं भूलते हैं.

हां, हम भूल जाते हैं या फिर हमें वक्त नहीं मिलता है अपने मां-बाबूजी और अन्य परिवारवालों के लिए. इस सबके लिये हमारे पास ठोस वजह भी होती है. हम पर प्रेशर होता है करियर, समाज और सरोकार का. सिर्फ अपना परिवार ही तो परिवार नहीं होता न. हमें याद नहीं रहता है कि हमने आखरी बार कब मां से बात की थी. अगर कभी स्नेह से वो शिकायत करती भी हैं तो हमारे पास माकूल सा जवाब होता है कि बाबूजी से तो बात कर ही लेता हूं. हमें नहीं याद है कि डॉक्टर ने उन्हें कौन सी दवाई अब उम्र भर लेने को कहा है. लेकिन उन्हें आज भी याद है कि बचपन में मुझे किस डॉक्टर का ट्रीटमेंट मुझे ज्यादा सूट किया करता था. राखी के मौके पर हॉस्टल से मेरे आने तक बहन भूखी रहती थी, भले शाम क्यूं न हो जाए. बिना राखी बांधे वो एक निवाला भी नहीं खाती थी. आज मेरी इस अतिमहत्वाकांक्षी दुनिया को वो भी समझ गई है. राखी कूरियर कर देती है, पूछ लेती है मिल गया…बांध लिए….और वो खुश हो लेती है. हमें याद है बाबू जी ने कई बार अपनी ख्वाहिशों को हमारी खुशी के लिये दफनाया था. आज जब हमारी बारी है तो हम सामंजस्य बिठाने के बजाय इससे पल्ला झाड़ते नज़र आते हैं.

जीवनसाथी चुनने को लेकर भी यही ऊहापोह बनी रहती है. हमारी कोशिश होती है कि हमें ऎसा पार्टनर जो हमारे कॅरियर ओरिएंटेड माइंड पर टीका टिप्पणी न करे. वो हमारे कॅरियर के ग्रोथ मे मददगार हो. सेंटीमेंट, स्नेह सब सेकेंडरी हो जाती है.

वस्तुतः सबकुछ पा लेने, खुद को सेक्योर कर लेने की अंधी चाहत हमे ऎसे मोड़ पर ला खड़ा करती है, जहां सबकुछ होते हुए भी हमारे पास बहुत कुछ नहीं होता है.जब तक हमें इसका एहसास होता है परिस्थितियां बदल चुकी होती है. हमारे चाहने वाले एक माइंडसेट तैयार कर लेते हैं कि हमारा लाइफ स्टाइल ही यही है. और जब हमें जरूरत होती है स्नेह, प्रेम, वात्सल्य की तो हमारे चारों ओर सिवाय निर्वात के कुछ नहीं मिलता. ज़िंदगी जीने के लिये हमें सामंजस्य बिठाने की कला सीखनी होगी. हमे फर्क करना सीखना होगा समझौते और सामंजस्य में।

Wednesday, April 6, 2011

बिहार दिवस अथ इमेज बिल्डिंग की क़वायद


बिहार दिवस के दौरान ऐसा ताना-बाना बुना गया मानो बिहार का कायाकल्प हो गया। अकेले पटना में करोड़ों रूपये खर्च कर भव्य आयोजन किया गया। हर जिले को तकरीबन तीन लाख की राशि बिहार से आयोजन पर खर्च करने को दिये गए।

राज्य प्रायोजित इस आयोजन से आम आदमी का हित सधता कहीं नहीं दिखा। यह महज़ एक प्रशासनिक कार्यक्रम भर रहा। पूरे तीन दिनों के इस भव्य आयोजन में सरकार अपनी पीठ खुद थपथपाती रही। बिहार दिवस यानि बिहार विज्ञापन के इस मौके़ पर देश के कई हिस्सों से कलाकारों के साथ-साथ राजनेताओं को भी आमंत्रित किया गया। लेकिन सत्ता के मद में चूर नीतीश प्रोटोकॉल भी भूल गए। विपक्ष का एक अदना विधायक भी इस कार्यक्रम में कहीं शरीक नहीं हुआ।
कोई शक नहीं कि विकास नहीं हुआ है। लालू-राबड़ी राज की अपेक्षा बदलाव जरूर नज़र आते हैं। चिकनी-चुपड़ी सड़कें और साइकिल से बच्चियों का स्कूल जाना बड़ी ही आसानी से दिख जाता है। अपनी जीडीपी ग्रोथ रेट को लेकर सुशासन बाबू तो वाहवाही पहले ही बटोर चुके हैं लेकिन सच्चाई कुछ और भी है। जीडीपी के बढ़ने के बाद भी बिहार के मानव विकास सूचकांक में कोई खास अंतर नहीं आया है। आज भी बिहार की 70 प्रतिशत आबादी 20 रूपये रोजाना पर जीने को विवश है।

तीन दिवसीय इस आयोजन में करोड़ों खर्च किये गये लेकिन सरकार ने एक बार भी उन विभागों के बारे में नहीं सोचा जिन्हें पिछले 5-6 महीनों से वेतन नहीं दिया गया। यह बिहार दिवस का आयोजन सरकारी अस्पताल और स्कूलों के कर्मचारियों के जले पर नमक लगाने जैसा था। इन कर्मियों को पिछले 6-7 महीनों से वेतन नसीब नहीं हुआ है।
बिहार विकास की पटरी पर सरपट दौड़ रही है। ऐसा सरकार कहती है और इसे और बेहतर तरीके से परोसती है बिहारी मीडिया। बिहार की पूरी मीडिया इस पत्रकारिता में लगी हुई है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। लेकिन पिछले साल एक गै़रसरकारी संस्था ‘असर’ ने रिपोर्ट जारी किया कि बिहार के स्कूलों में ऐसे बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है, जो पढ़ते तो हैं पांचवी में परन्तु उन्हें दूसरी कक्षा की भी पूरी जानकारी नहीं है।

बिहार को विकसित बनाने का सपना और उसके लिए प्रयासरत हमारे मुख्यमंत्री आये दिन केन्द्र पर आरोप लगाते रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से सूबे में बिजली की संकट भी चली आ रही है। बिहार दिवस के दौरान पूरे सूबे से बिजली की कटौती कर पटना के गांधी मैदान को जगमगाया जा रहा था। इन तीन दिनों के दौरान भागलपुर, कटिहार, नवादा और शेखपुरा में लोगों ने बिजली को लेकर जमकर हंगामा किया और आगजनी की घटना को अंजाम दिया। कई जिले तो 24-24 घंटों तक बिजली से महरूम रहा।
इधर बिहार दिवस के समापन पर नवादा जिले में वहां के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने बार-बालाओं के नृत्य भी सरकारी खर्चे पर करवाये। यह मामला विधान सभा तक भी पहुंचा और हंगामा हुआ।

बिहार दिवस के आयोजन को नीतीश सरकार ने राजग गठबंधन के प्रचार का मंच बना दिया। विकास हुआ है इसमें दो मत नहीं, लेकिन इसका प्रचार इतना अधिक किया गया कि जिससे जनता को भी यह भ्रम हो जाए कि बिहार सही में एक विकसीत राज्य बन रहा है। लेकिन शायद सरकार यह भूल गई कि भूखी जनता को समारोह नहीं बल्कि रोटी चाहिए।

Thursday, March 31, 2011

डुमरी मोरा गाँव


रात के करीब आठ बज रहे होंगे. हमारी ट्रेन बेगुसराय स्टेशन पर रुकी. भारतीय परंपरा को निभाते हुये ट्रेन अपने नियत समय से मात्र दो घंटे लेट थी। मैं झट से स्टेशन से बाहर निकला अैर एक रिक्शे पर जाकर पसर गया.
भैया डुमरी जाना है.
25 रूपये लगेंगे,
मेल-जोल के मूड में मै भी नहीं था, हामी भर दी.
मुख्य शहर से हम गांव की ओर बढने लगे थे। धीरे-धीरे बिजली की चकाचऔंध गायब हो रही थी. अब हम गांव को जाने वाली मुख्य सड़क पर आ गये थे। बिल्कुल ही धुप्प अंधेरे में वो हमसे बातें करता हुआ बड़ी ही तेजी से रिक्शा खींचे जा रहा था, मैंने अपने बैग को कस कर पकड़ लिया था. क्योंकि अबतक के अनुभव से मुझे यही ज्ञात था कि हमारे गांव की सड़क पर गड्ढे नहीं बल्कि गांव की सड़क ही गड्ढे में है. थोड़ी दूर चलने के बाद मैं आश्वस्त हो गया कि सड़क चिकनी-चुपड़ी है.
मैने मन ही मन सुशासन बाबु को धन्यवाद दिया कि वाह साहब वाकई आपने विकास किया है.
थोड़े समय बाद ही मैं घर पहुंच गया था. मैं बोल पड़ा, वाह रे गांव का अनुमानित समय से पहले ही घर पहुंचा दिया, वो भी बिना हिचकोले.
सबसे मिलने-जुलने और खाना खाने के बाद मैं भी सोने चला गया.
सुबह हो चली थी. मैं बबूल का दतवन मुंह में दबाये मुहल्ले की सड़क पर टहल-टहल कर गांव को निहार रहा था. कितना बदल गया है मेरा गांव हर घर के छत पर पानी की टंकी, दलान पर नल की टोंटी. हर दूसरे व्यक्ति के हाथ में मोबाइल. यह सब देखकर बड़ा ही अच्छा लग रहा था.
बच्चों के स्कूल जाने का समय हो चला था. DAV, DPS और भी कई स्कूलों की गाडि़यां अब मेरे गांव तक भी आने लगी थी. मेरे पड़ोस की दादी चाची भाभी अपने अपने घर से बच्चों को लेकर सड़क के किनारे खड़ी थीं.
अचानक मेरी नज़र ठिठकी, मैंने देखा कि कुछ बच्चे अपने कांख के नीचे बोरिया और पन्नी में अपना बस्ता दबाये सरकारी स्कुल को जा रहे हैं. मेरे मुहल्ले के उस सरकारी स्कुल में दलितों के बच्चे पढते हैं या उन सवर्णो के बच्चे पढते हैं जो आर्थिक रूप से दलित हैं.
वह स्कूल मेरे घर से थोड़ी ही दूरी पर है सो मेरा जाना वहां भी हुआ.
पीपल का विशाल पेड़, कुंआ, पंचायत भवन, मंदिर और इन सब के पास ही वो सरकारी स्कुल मुझे अपने बचपन के दिन याद आ रहे थे. इन सब के बावजूद भी बहुत कुछ बदल चुका था. कुआं लगभग सूख गया था, पीपल के उस पेड़ के नीचे लोग आज भी ताश खेल रहे हैं. बस थोड़ा सा अंतर है, आज बूढे अैर नौजवान एक साथ चौकड़ी जमाये हुये हैं. मैं बुदबुदाया कि वाह इसे कहते हैं रेडिकल होना.
चूंकी शहर मेरे गांव के करीब आ गया है सो वहां की जमीन मंहगी हो गयी है. इन नौजवानो का प्रमुख शगल है जमीन बेच कर अय्याशी करना. नयी-नयी बाइक, नये-नये मोबाइल इनके रूतबे को बढाता है. और जो थोड़े सही हैं सूद पर पैसे लगाते हैं.
कुछ दिन गांव मे रहने पर कुछ और ही पता चला. जो मेरे हमउम्र हैं वो इसी स्कुल के पास मंडराते या बैठे रहते हैं. उनका काम होता है वहां बैठ कर स्कुल की जवान हो रही लड़कियों पर डोरे डालना, वहीं बैठ कर दारू-बीयर पीना. अब तो मेरे गांव मे भी चिल्ड बीयर मिलने लगी है. नितीश बाबु ने सिर्फ सड़कें ही नहीं, ठेके को भी गांव-गांव तक पहुंचाया है.
पता करने पर मालूम हुआ कि कुछ लड़कियां तो इनके बहकावे आ गयी हैं लेकिन कुछ ने इसका विरोध करते हुये इसकी जानकारी अपने बाप-भाई को दे दी. ये गरीब और दबे-कुचले बाप इन सवर्ण के लौंडे को कुछ कहने से रहे उल्टे कच्ची उम्र में ही बेटी को ब्याह देते हैं.
मैंने मुहल्ले के कुछ लोगों से इसकी शिकायत भी की लकिन कुछ हल निकलता दिखा नहीं. कुछ दिनों बाद मैं भी अपनी रोजी-रोटी के लिये वापस नौकरी पे आ गया.
आज गांव से एक लड़का आया है और अचानक घटनायें ताजा हो गई. बातों ही बातों में उसने बताया कि स्कुल में पढ रही एक लड़की मुहल्ले के एक लड़के के बहकाबे में आ गयी है. यह वाकया पूरे गांव में चर्चा का विषय है. दोनों जाती से सवर्ण हैं और मेरे ही मुहल्ले के हैं. बात यहीं खत्म नहीं होती है ये दोनो रिश्ते में चाचा-भतीजी हैं.
आज खुद पर पड़ी है तो मेरे मुहल्ले वासी को नैतिकता और मर्यादा याद आ रही है.
अगर शहरीकरण होने से इतना कुछ बदलता है तो बेहतर है गांव गांव ही रहे.

Tuesday, January 18, 2011

दूध के धुले हम भी नहीं, तुम भी नहीं


बेगूसराई की एक कवि गोष्ठी में सुना था, “मैं कली कचनार होता, तो बिका बाजार होता. मैं अगर मक्कार होता, तो देश की सरकार होता”. किन साहब की है पता नहीं. नेताओं के बारे में ऐसी राय रखने वाले ज्यादा से ज्यादा लोग आपको मिल जायेंगे. वजह हमें भी पता है और अपको भी, दोषी हम भी हैं और हमारे रहनुमा भी. नीतीश ने दूसरी पारी की शुरुआत की. भ्रष्टाचार उन्मूलन को प्रतिबद्ध श्री कुमार ने विधायक निधी को समाप्त कर दिया, यह भे घोषणा कर डाली की जिन अधिकारियों के पास आय से अधिक सम्पत्ती होगी उनके बंगलों में स्कूल खोले जायेंगे. इस दिशा में उनका यह पहला कदम था. वाहवाही होने लगी, उनकी तारीफ में कसीदे भी गढ़े जाने लगे. देखना है नीतेीश कब तक अपनी इस प्रतिबद्धता पर कायम रह पाते हैं. इंतजार रहेगा भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में उनके अगले कदम का. भ्रष्टाचार का तो सबसे बड़ा उदाहरण सचिवालय ही है. यहां एक अदना सा काम भी बिना घूस के नहीं होता. वो भी खुल्लम-खुल्ला. मनचाहा ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिये कलर्क से लेकर बाबू तक की जेबें गर्म करनी पड़ती है. यह नंगा सत्य किसी से छिपा नहीं है. जो जिस विभाग में है वहीं बस गया है. पोस्टिंग के दस पंद्रह साल बीत जाने के बाद भी इनके विभागों की बदली नहीं हुई है. निगरानी विभाग भी यहां जाने की जहमत नहीं उठाती. मुख्यमंत्री यहीं से झाड़ू लगाना शुरु करें तो ज्यादा बेहतर होगा. पिछले साल निगराणी विभाग के द्वारा अमूमन बीस पच्चीस लोगों को रंगे हाथों पकड़ा गया. आरोप पत्र दाखिल नहीं हो पाने की वजह से आज सभी के सभी जमानत पर छूट अपने पद पर दूबारा काबिज हो गये हैं. नजीर के तौर पर जन वितरण प्रणाली को ही लें. यह पूरी की पूरी व्यवस्था ही आकंठ भ्राष्टाचार में डूबी हुई है. डीलर की निगरानी के लिये एमओ को लगाया गया, उसे भ्रष्ट होते देख एसडीओ फिर डीएसओ. हालत ये हुई कि अंकुश लगने के वजाय सबका कमीशन बंधता चला गया. पिछले साल कैग ने जोधपुर के जिलाधीश कार्यालय का अंकेक्षण करने के बाद कहा था कि गरीबों को न्युनतम वेतन देने के मकसद से शुरु हुई मनरेगा योजना मजदूरों के घर का दिया तो नहीं जला सकी लेकिन इन अधिकारियों के घरों का रंग-रोगन अवश्य हो गया. आज यहां भी मनरेगा में यही लूट मची हुई है. आये दिन इससे जुड़ी शिकायतें देखने सुनने को मिल जाती है. हालत यह है कि इंदिरा आवास से लेकर जाति प्रमाण पत्र बनवाने तक के लिये एक खास रकम मौखिक रूप से तय है. और हम भी सहर्ष लेन-देन करते हैं. हमारा सामाजिक खांचा ही एसा है कि हर अदमी जल्द से जल्द अमीर होना चाहता है. हमारी यही आपा-धापी हर गड़बड़ी की वजह है. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गांव-गांव तक ले जाना जरूरी है. जरूरत है कि हम अपने दायित्वों के प्रति जिम्मेवार बनें. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक कदम हर नागरिक को उठाना होगा. वक्त आ गया है कि हम समाज की दशा और दिशा खुद तय करें.

Wednesday, January 12, 2011

उम्मीद है उम्मीदों पर नहीं फिरेगा पानी


सूबे के सरदार इनदिनों कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं. मातृशोक से अभी उबर भी नहीं पाये थे कि विधायक हत्याकांड ने एक नया बखेरा खड़ा कर दिया.

सूबेदार की चुप्पी पर भी लोगों ने सवाल खड़े करने शुरु कर दिये थे. एक तो करेला उपर से नीम चढा वाली कहावत को एन वक्त पर हमारे मोदी साहब ने और चरितार्थ कर दिया. तथ्यों की पड़ताल किये बिना ही उन्होंने रूपम पाठक को ब्लैकमेलर तक कह दिया. आखिरकार नीतीश ने हत्या कांड की C.B.I जांच हो इसकी सिफारिश कर ही दी. एक महिला का हथियार उठा लेना और थोड़ा पीछे देखें तो नीतीश ने अपने एक चुनावी सभा के दौरान विधायक केसरी को मंच से जाने को कह दिया था. ये दोनो ही बातें इतना बताने को काफी हैं कि दाल में काले का अंश है. एसे में रुचिका गिरिहोत्रा का मामला याद आता है. दोषी साबित होने के बाद एस. पी. एस. राठौर से सम्मान और पदक छीन लिये गये थे. कहीं हमारे उप-मुख्यमंत्री को को ये न कहना पड़े कि हमे सच्चाई क पता न था. हम शर्मिंदा हैं. आये दिन रूपम पाठक के पक्ष में स्वर मुखर हो रहे हैं. इसी घटनाक्रम में एक स्थानीय पत्रकार का गिरफ्तार होना और बिहार की पूरी मीडिया का चुप्पी साध लेना एक विडंबना ही कही जायेगी.

ताजपोशी के तुरंत बाद सरदार ने भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की बात कही थी. कई महकमों एवं अधिकारियों को हड़काया और चेताया भे. इस क्रम में मुख्यमंत्री सचिवालय को भूल जायेंगे एसी उम्मीद नहीं है. जहां एक मामूली सी सिफारिश के लिये भी रिश्वत की दरकार पड़ती है.

एक और समस्या जो सुरसा की तरह मुंह बाये इनकी तरफ दौड़ी आ रही है. मुजफ्फरपुर के मरबन में बन रही एसवेस्टस फैक्ट्री कहीं इन्हें मुश्किल में न डाल दे. अभी हाल ही में मजदूरों के धड़ने को जिस तरह से बंदूक के बल पर कम्पनी के मुलाजिमों ने खदेड़ा, और शासन-प्रशासन के रवैये से लगता है दूसरे नंदीग्राम की जमीन तैयार की जा रही है. भूमि अधिग्रहन से लेकर अब तक वहां की खेतीहर जनता को बालमुकुंद एंड कम्पनी ने ठगने का ही काम किया है. लगभग ५६ देशों में बैन होने के बाद यह बताना जरूरी नहीं है कि एसवेस्टस फैक्ट्री किस हद तक घातक होती है. एक तो घनी आवादी वाला क्षेत्र उसमें भी कृषि योग्य भूमि पर फैक्ट्री लगाने की इजाजत दे देना नादानी ही दिखती है. विकास के इस अंधी दौड़ में कहीं जमीन के लोग कुचल न दिये जायें. उम्मीद है हमारे विकास पुरुष इस बात का ख्याल रखेंगे और सभी मुश्किलों से पार पा जायेंगे.

देखा-सुनी