Wednesday, July 20, 2011

दूध के धुले हम भी नहीं तुम भी नहीं


बेगूसराई की एक कवि गोष्ठी में सुना था, मैं कली कचनार होता, तो बिका बाजार होता। मैं अगर मक्कार होता, तो देश की सरकार होता। किन साहब की है पता नहीं। नेताओं के बारे में ऐसी राय रखने वाले ज्यादा से ज्यादा लोग आपको मिल जायेंगे। वजह हमें भी पता है और आपको भी, दोषी हम भी हैं और हमारे रहनुमा भी।

नीतीश ने दूसरी पारी की शुरुआत की। भ्रष्टाचार उन्मूलन को प्रतिबद्ध श्री कुमार ने विधायक निधी को समाप्त कर दिया, यह भी घोषणा कर डाली की जिन अधिकारियों के पास आय से अधिक सम्पत्ती होगी उनके बंगलों में स्कूल खोले जायेंगे। इस दिशा में उनका यह पहला कदम था। वाहवाही होने लगी, उनकी तारीफ में कसीदे भी गढ़े जाने लगे। देखना है नीतीश कब तक अपनी इस प्रतिबद्धता पर कायम रह पाते हैं। इंतजार रहेगा भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में उनके अगले कदम का।

भ्रष्टाचार का तो सबसे बड़ा उदाहरण सचिवालय ही है। यहां एक अदना सा काम भी बिना घूस के नहीं होता, वो भी खुल्लम-खुल्ला। मनचाहा ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिये क्लर्क से लेकर बाबू तक की जेबें गर्म करनी पड़ती है। यह नंगा सत्य किसी से छिपा नहीं है। जो जिस विभाग में है वहीं बस गया है। पोस्टिंग के दस पंद्रह साल बीत जाने के बाद भी इनके विभागों की बदली नहीं हुई है। निगरानी विभाग भी यहां जाने की जहमत नहीं उठाती। मुख्यमंत्री यहीं से झाड़ू लगाना शुरु करें तो ज्यादा बेहतर होगा।

पिछले साल निगरानी विभाग के द्वारा अमूमन बीस पच्चीस लोगों को रंगे हाथों पकड़ा गया। आरोप पत्र दाखिल नहीं हो पाने की वजह से आज सभी के सभी जमानत पर छूट अपने पद पर दुबारा काबिज हो गये हैं। नजीर के तौर पर जन वितरण प्रणाली को ही लें। यह पूरी की पूरी व्यवस्था ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। डीलर की निगरानी के लिये एमओ को लगाया गया, उसे भ्रष्ट होते देख एसडीओ फिर डीएसओ। हालत ये हुई कि अंकुश लगने के बजाय सबका कमीशन बंधता चला गया।

पिछले साल कैग ने जोधपुर के जिलाधीश कार्यालय का अंकेक्षण करने के बाद कहा था कि गरीबों को न्यूनतम वेतन देने के मकसद से शुरु हुई मनरेगा योजना मजदूरों के घर का दिया तो नहीं जला सकी लेकिन इन अधिकारियों के घरों का रंग-रोगन अवश्य हो गया। आज यहां भी मनरेगा में यही लूट मची हुई है। आये दिन इससे जुड़ी शिकायतें देखने सुनने को मिल जाती हैं। हालत यह है कि इंदिरा आवास से लेकर जाति प्रमाण पत्र बनवाने तक के लिये एक खास रकम मौखिक रूप से तय है और हम भी सहर्ष लेन-देन करते हैं।

हमारा सामाजिक खांचा ही ऐसा है कि हर आदमी जल्द से जल्द अमीर होना चाहता है। हमारी यही आपा-धापी हर गड़बड़ी की वजह है। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गांव-गांव तक ले जाना जरूरी है। जरूरत है कि हम अपने दायित्वों के प्रति जिम्मेवार बनें। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक कदम हर नागरिक को उठाना होगा।

वक्त आ गया है कि हम समाज की दशा और दिशा खुद तय करें।

देखा-सुनी