Tuesday, January 18, 2011

दूध के धुले हम भी नहीं, तुम भी नहीं


बेगूसराई की एक कवि गोष्ठी में सुना था, “मैं कली कचनार होता, तो बिका बाजार होता. मैं अगर मक्कार होता, तो देश की सरकार होता”. किन साहब की है पता नहीं. नेताओं के बारे में ऐसी राय रखने वाले ज्यादा से ज्यादा लोग आपको मिल जायेंगे. वजह हमें भी पता है और अपको भी, दोषी हम भी हैं और हमारे रहनुमा भी. नीतीश ने दूसरी पारी की शुरुआत की. भ्रष्टाचार उन्मूलन को प्रतिबद्ध श्री कुमार ने विधायक निधी को समाप्त कर दिया, यह भे घोषणा कर डाली की जिन अधिकारियों के पास आय से अधिक सम्पत्ती होगी उनके बंगलों में स्कूल खोले जायेंगे. इस दिशा में उनका यह पहला कदम था. वाहवाही होने लगी, उनकी तारीफ में कसीदे भी गढ़े जाने लगे. देखना है नीतेीश कब तक अपनी इस प्रतिबद्धता पर कायम रह पाते हैं. इंतजार रहेगा भ्रष्टाचार उन्मूलन की दिशा में उनके अगले कदम का. भ्रष्टाचार का तो सबसे बड़ा उदाहरण सचिवालय ही है. यहां एक अदना सा काम भी बिना घूस के नहीं होता. वो भी खुल्लम-खुल्ला. मनचाहा ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिये कलर्क से लेकर बाबू तक की जेबें गर्म करनी पड़ती है. यह नंगा सत्य किसी से छिपा नहीं है. जो जिस विभाग में है वहीं बस गया है. पोस्टिंग के दस पंद्रह साल बीत जाने के बाद भी इनके विभागों की बदली नहीं हुई है. निगरानी विभाग भी यहां जाने की जहमत नहीं उठाती. मुख्यमंत्री यहीं से झाड़ू लगाना शुरु करें तो ज्यादा बेहतर होगा. पिछले साल निगराणी विभाग के द्वारा अमूमन बीस पच्चीस लोगों को रंगे हाथों पकड़ा गया. आरोप पत्र दाखिल नहीं हो पाने की वजह से आज सभी के सभी जमानत पर छूट अपने पद पर दूबारा काबिज हो गये हैं. नजीर के तौर पर जन वितरण प्रणाली को ही लें. यह पूरी की पूरी व्यवस्था ही आकंठ भ्राष्टाचार में डूबी हुई है. डीलर की निगरानी के लिये एमओ को लगाया गया, उसे भ्रष्ट होते देख एसडीओ फिर डीएसओ. हालत ये हुई कि अंकुश लगने के वजाय सबका कमीशन बंधता चला गया. पिछले साल कैग ने जोधपुर के जिलाधीश कार्यालय का अंकेक्षण करने के बाद कहा था कि गरीबों को न्युनतम वेतन देने के मकसद से शुरु हुई मनरेगा योजना मजदूरों के घर का दिया तो नहीं जला सकी लेकिन इन अधिकारियों के घरों का रंग-रोगन अवश्य हो गया. आज यहां भी मनरेगा में यही लूट मची हुई है. आये दिन इससे जुड़ी शिकायतें देखने सुनने को मिल जाती है. हालत यह है कि इंदिरा आवास से लेकर जाति प्रमाण पत्र बनवाने तक के लिये एक खास रकम मौखिक रूप से तय है. और हम भी सहर्ष लेन-देन करते हैं. हमारा सामाजिक खांचा ही एसा है कि हर अदमी जल्द से जल्द अमीर होना चाहता है. हमारी यही आपा-धापी हर गड़बड़ी की वजह है. भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को गांव-गांव तक ले जाना जरूरी है. जरूरत है कि हम अपने दायित्वों के प्रति जिम्मेवार बनें. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में सार्थक कदम हर नागरिक को उठाना होगा. वक्त आ गया है कि हम समाज की दशा और दिशा खुद तय करें.

Wednesday, January 12, 2011

उम्मीद है उम्मीदों पर नहीं फिरेगा पानी


सूबे के सरदार इनदिनों कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं. मातृशोक से अभी उबर भी नहीं पाये थे कि विधायक हत्याकांड ने एक नया बखेरा खड़ा कर दिया.

सूबेदार की चुप्पी पर भी लोगों ने सवाल खड़े करने शुरु कर दिये थे. एक तो करेला उपर से नीम चढा वाली कहावत को एन वक्त पर हमारे मोदी साहब ने और चरितार्थ कर दिया. तथ्यों की पड़ताल किये बिना ही उन्होंने रूपम पाठक को ब्लैकमेलर तक कह दिया. आखिरकार नीतीश ने हत्या कांड की C.B.I जांच हो इसकी सिफारिश कर ही दी. एक महिला का हथियार उठा लेना और थोड़ा पीछे देखें तो नीतीश ने अपने एक चुनावी सभा के दौरान विधायक केसरी को मंच से जाने को कह दिया था. ये दोनो ही बातें इतना बताने को काफी हैं कि दाल में काले का अंश है. एसे में रुचिका गिरिहोत्रा का मामला याद आता है. दोषी साबित होने के बाद एस. पी. एस. राठौर से सम्मान और पदक छीन लिये गये थे. कहीं हमारे उप-मुख्यमंत्री को को ये न कहना पड़े कि हमे सच्चाई क पता न था. हम शर्मिंदा हैं. आये दिन रूपम पाठक के पक्ष में स्वर मुखर हो रहे हैं. इसी घटनाक्रम में एक स्थानीय पत्रकार का गिरफ्तार होना और बिहार की पूरी मीडिया का चुप्पी साध लेना एक विडंबना ही कही जायेगी.

ताजपोशी के तुरंत बाद सरदार ने भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने की बात कही थी. कई महकमों एवं अधिकारियों को हड़काया और चेताया भे. इस क्रम में मुख्यमंत्री सचिवालय को भूल जायेंगे एसी उम्मीद नहीं है. जहां एक मामूली सी सिफारिश के लिये भी रिश्वत की दरकार पड़ती है.

एक और समस्या जो सुरसा की तरह मुंह बाये इनकी तरफ दौड़ी आ रही है. मुजफ्फरपुर के मरबन में बन रही एसवेस्टस फैक्ट्री कहीं इन्हें मुश्किल में न डाल दे. अभी हाल ही में मजदूरों के धड़ने को जिस तरह से बंदूक के बल पर कम्पनी के मुलाजिमों ने खदेड़ा, और शासन-प्रशासन के रवैये से लगता है दूसरे नंदीग्राम की जमीन तैयार की जा रही है. भूमि अधिग्रहन से लेकर अब तक वहां की खेतीहर जनता को बालमुकुंद एंड कम्पनी ने ठगने का ही काम किया है. लगभग ५६ देशों में बैन होने के बाद यह बताना जरूरी नहीं है कि एसवेस्टस फैक्ट्री किस हद तक घातक होती है. एक तो घनी आवादी वाला क्षेत्र उसमें भी कृषि योग्य भूमि पर फैक्ट्री लगाने की इजाजत दे देना नादानी ही दिखती है. विकास के इस अंधी दौड़ में कहीं जमीन के लोग कुचल न दिये जायें. उम्मीद है हमारे विकास पुरुष इस बात का ख्याल रखेंगे और सभी मुश्किलों से पार पा जायेंगे.

देखा-सुनी