Saturday, May 19, 2012

सत्यानाश होती शिक्षा व्यस्था


मांग को लेकर शिक्षकों का शांतिपूर्ण प्रदर्शन
बदलते, बनते और बढते बिहार की चर्चा चहुं ओर है. सुशासन, न्याय के साथ विकास, सामेकित विकास जैसे कई विशेषणों से भी सूबे को नवाजा जाता है. बदलते बिहार का श्रेय लेते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई सम्मान भी ले चुके हैं. सत्ता संभालने के प्रारंभिक दिनों से ही शिक्षा इनकी प्राथमिकता रही है, ऐसा वो कहते भी हैं.
बिहार सरकार का कोई भी आयोजन हो, सरकारी उपलब्धियों की स्मारिका हो यूनीफॉर्म में साईकिल से स्कूल जाती बच्चियों के स्टेच्यु और तस्वीरें खूब दिखाये जाते हैं. बच्चों को स्कूल तक लाने की ये सब कवायद पिछले दिनों धरी की धरी रह गयी जब बिहार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिशन की रिपोर्ट सामने आयी. मिशन ने सूबे के कई हजार स्कूलों का सर्वे किया और पाया कि बिहार में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का घोर आभाव है. मिशन ने कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किये. जैसे सूबे के पच्चासी फीसदी कक्षाओं में ब्लैकबोर्ड का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, चौवालिस फीसदी शिक्षक स्कूल से गैरहाजिर रहते हैं वहीं सत्तर फीसदी स्कूलों में प्रार्थना तक नहीं होते हैं. जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर विनय कंठ कहते हैं कि ब्लैकबोर्ड का इस्तेमाल होना शिक्षा के प्रति उदासीन रवैया को दर्शाता है.
सत्ता संभालते ही नीतीश ने शिक्षा के प्रति अपनी संवेदनशीलता दिखाते हुए कई महत्वपूर्ण फैसले लिये. बड़े पैमाने पर शिक्षकों के नियोजन की प्रकिर्या आरम्भ हुई. शुरुआत में नियोजन की प्रकिर्या पंचायत के प्रतिनिधियों के हाथ में दे दी गई थी, जिसमें व्यापक भ्रष्टाचार का भी मामला सामने आया था. नियोजन की यह पहली प्रकिर्या अंक के आधार पर हुई थी. सरोकार से जुड़े लोग उस समय मजाक भी करते थे कि सिपाही के लिये लिखित परिक्षा और शिक्षक का नियोजन अंक के आधार पर यह सिर्फ बिहार में ही हो सकता है. विद्यालय को उत्क्रमित किये जाने का भी फैसला लिया गया. प्राइमरी को उत्क्रमित कर मध्य, मध्य को उत्क्रमित कर उच्च और उच्च विद्यालय को उत्क्रमित कर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बना दिया गया. उत्क्रमित विद्यालयों के लिये अरबों रूपये का आबंटन भी हुआ जिसे भवन निर्माण, पाठ्य-पुस्तक, खेल सामग्री और प्रयोगशाला जैसी चीजों पर खर्च करना था. लेकिन इन रूपयों का बंदरबांट हो गया, आज भी कई ऐसे विद्यालय हैं जहां मूलभूत आवश्यकताओं का भी घोर आभाव है. जहां भवन बने हैं वहां घटिया सामग्री का इस्तेमाल हुआ है, कहीं भवन अधूरे ही बने हुए हैं तो बहुत से स्कूल ऐसे भी हैं जहां भवन बने ही नहीं हैं या उसे अब तक चारदिवारी नसीब नहीं हुआ है. योग्य शिक्षकों की कमी और संसाधनो का आभाव कमोबेश सूबे के अधिकांश जिलों में देखने को मिलता है. बानगी के तौर पर हम बेगुसराय के कुछ सरकारी विद्यालयों को देख सकते हैं.
हाई स्कूल नारेपुर की शिक्षा व्यवस्था बिल्कुल चौपट होने की स्थिती में है. यहां नौंवीं और दसवीं के बारह सौ छात्रों के लिये मात्र नौ शिक्षक हैं. छात्रों को बैठने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है और स्कूल में कक्षाओं का भी घोर आभाव है. हाई स्कूल यह समस्या पिछले एक साल से झेल रहा है. एक शिक्षक नाम नहीं छापने के शर्त पर कहते हैं कि नये शैक्षिणिक सत्र शुरु हुए महीने दिन से अधिक हो गये लेकिन अब तक सभी छात्रों को किताबें नहीं मिल सकी है. किताबों को लेकर हर साल यही स्थिती रहती है, छात्रों को सारी किताबें नैंवे या दसवें महीनें में जाकर ही मिल पाती है. जिले के एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय के बच्चों से जब पूछा जाता है कि “एक किलोमीटर में कितने मीटर” तो छात्र तो छात्र शिक्षक भी सही जवाब नहीं दे पाते हैं. वहीं एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय में कोई भी शिक्षक रोमन में 49 नहीं लिख पाते हैं. कैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बिहार के छात्रों को दी जा रही है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.
इधर बेगुसराय के प्राथमिक शिक्षक भी सरकार की नीतियों का विरोध करते दिखते हैं. पिछले दिनों जिले में हुई भाजपा कार्यकारिणी की बैठक का भी इन शिक्षकों ने विरोध किया था और उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को अपना ज्ञापन भी सौंपा था. प्राथमिक शिक्षकों का कहना है कि अठारह साल बीत जाने के बाद भी उनलोगों को प्रोन्नती नहीं मिली है. जबकि जिले के 725 मध्य स्कूलों में मात्र आठ या दस ही ऐसे स्कूल हैं जिन्हें प्रधानाध्यापक नसीब है, बांकी के स्कूल 1994 से ही कार्यकारी प्रधानाध्यापक के भरोसे चल रहा है. जबकि ऐसा नीयम है कि वैकल्पिक व्यवस्था का उपयोग छह माह तक ही किया जा सकता है. प्राथमिक शिक्षक रंजन कहते हैं कि कॉरपोरेट विद्यालयों और सरकार के बीच तारतम्य बना हुआ है, यही वजह है कि सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षण व्यवस्था के प्रति उदासीन है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ मोदी का ही विरोध हुआ और समस्या सिर्फ बेगुसराय जिले की ही है. इनदिनों सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर हैं. नियोजित शिक्षकों का विरोध उन्हें मोतिहारी, सहरसा सहित कई जिलों में झेलना पड़ा है. मोतिहारी में शिक्षकों ने अर्धनग्ण होकर प्रदर्शन किया और सड़कों पर भीख भी मांगा. वहीं सहरसा में मुख्यमंत्री के चल रहे जनता दरबार में वहां के शिक्षकों ने जम कर विरोध किया.
बताते चलें कि बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ बिहार के शिक्षकों का एक मजबूत संगठन है, जिसने शिक्षकों की लंबी लड़ाई लड़ी है, और संघ के खाते में ढेर सारी उपलब्धियां भी हैं. लेकिन बाद के दिनों में माध्यमिक शिक्षक संघ की धार कुंध पड़ती गई और यह अनायास नहीं हुआ. इसकी नींव सीपीआई का लालू के साथ समझौते के दौरान ही पड़ गई थी, क्योंकि माध्यमिक शिक्षक संघ पर हमेशा से सीपीआई का वर्चस्व रहा है. सीपीआई के पूर्व सांसद शत्रुधन प्रसाद सिंह इसके अध्यक्ष हैं. हाल के दिनों में बिहार के नियोजित शिक्षकों ने अपना अलग “नवनियुक्त माध्यमिक शिक्षक संघ” बना लिया. यह पूछे जाने पर कि माध्यमिक शिक्षक संघ के होते हुए आपको एक अलग संगठन की आवश्यकता क्यों पड़ी? नियोजित शिक्षकों के प्रदेश उपाध्यक्ष नवीन कुमार नवीन कहते है, “माध्यमिक शिक्षक संघ सुविधा की लड़ाई लड़ता है और हमें अपने अस्तित्व पर खतरा है. माध्यमिक शिक्षक संघ लड़ाई में हमारा साथ इमानदारी से नहीं दे पाती है.” नियोजित शिक्षकों की मांग है कि उनके पद को स्विकृत किया जाय, समान कार्य के लिये समान वेतन का प्रावधान हो तथा नियोजित शिक्षकों का एक नियंत्री पदाधिकारी हो. यहां यह जान लेना आवश्यक है कि इस मंहगाई में भी इन नियोजित शिक्षकों का वेतन नियुक्त शिक्षकों की तुलना में काफी कम है. प्राइमरी और मिडिल के शिक्षकों को छह से सात हजार और उच्च विद्यालयों के शिक्षकों का वेतन साढे साथ से आठ हजार मासिक ही दिया जाता है. बिख्यात शिक्षाविद अनिल सदगोपाल नियोजन यानी ठेके पर शिक्षकों के बहाली और उसे दिये जा रहे मानदेय के खिलाफ हैं, कहते हैं कि जिसके जिम्मे हमारे बच्चों को शिक्षा देने का और सुसंस्कृत करने का काम होता है, उससे हम ठेके पर कैसे काम ले सकते हैं. अभी पिछले दिनों ही पटना हाई कोर्ट ने नियोजित शिक्षकों के बारे में कहा था कि यह एक विशेष प्रकार की नियुक्ति है जिसे शिक्षकों के दर्जे में नहीं रखा जा सकता है. गौरवशाली अतीत को पाने को बेकरार बिहार सरकार पर अदम गोंड्वी की रचना सटीक बैठती है कि “तुम्हारे फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है”.

Sunday, March 25, 2012

नीतीश हैं अखबारों के अघोषित संपादक


मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर मीडिया को नाथने और साधने का आरोप लगता रहा है. अभी दो-चार दिन पहले और पूर्व में ऐसी कई घटनायें और वाकये भी हुए हैं जो इस आरोप को पुष्ट करते हैं.

वर्षों से जदयू के कोषाध्यक्ष रहे बिनय कुमार सिन्हा के घर आयकर विभाग का छापा. बिनय कुमार सिन्हा 1994 से जदयू के कोषाध्यक्ष हैं, आयकर विभाग ने घर सहित इनके कई ठिकानों पर छापेमारी की, जिसमें आयकर विभाग को बोरे में बंद साढे़ चार करोड़ रूपये मिले. जानकार बताते हैं कि श्री सिन्हा नीतीश के सबसे करीबी व्यक्ति हैं और मुख्यमंत्री बनने से पहले तक इन्हीं के मकान में किराये पर रहा करते थे. एक अणे मार्ग में शिफ्ट करने से पहले तक मुख्यमंत्री का कारकेड बिनय कुमार के घर ही जाया करता था. लेकिन इतने महत्वपूर्ण खबर को अधिकांश अखबारों ने जगह ही नहीं दी. सूबे के एक प्रतिष्ठित अखबार ने इसे लगाया तो सही लेकिन उस अखबार ने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि बिनय कुमार जदयू के कोषाध्यक्ष हैं.

थोड़े दिन पहले का मामला है. जनता दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम के दौरान जब नीतीश कुमार प्रेस को संबोधित कर रहे थे, तो एक युवा पत्रकार ने पूछा था कि सर क्या बात है लोगों में नाराजगी बढ रही है, वे सड़कों पर उतरने लगे हैं’. इतना सुनते ही मुख्यमंत्री भड़क गये और उस पत्रकार की वहां काफी फजीहत भी हुई. इसी तरह की एक घटना सुबे के बेगुसराय जिले की है. उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को एक कार्यक्रम में शिरकत करने अपने समय से काफी लेट पहुंचे. कुछ पत्रकार उनका इंतजार करते-करते चले गये. यह जानने पर कि पत्रकार चले गये उप-मुख्यमंत्री ने कहा कि नौकरी करनी है तो हमारा इंतजार तो करना पड़ेगा.

मीडिया पर लगे अघोषित प्रतिबंध की चर्चा तो सुबे में दबे जुबान होती ही रहती थी. लेकिन इसे और बल मिला पिछले दिनों प्रेस कॉंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष न्यायमुर्ती काटजू के दिये बयानो से. न्यायमुर्ती काटजू पिछले दिनों बिहार में थे. पटना विश्वविधालय के द्वारा एक व्याख्यान का आयोजन किया गया था. आयोजन के दौरान प्रेस कॉंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के अवकाश प्राप्त न्यायधीश मार्कंडे काटजू ने बिहार सरकार को कबीर दास के दोहे निंदक नियरे राखिये की याद दिलाई. और प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लालू के शासन काल को नीतीश के शासन काल से बेहतर बताया. न्यायमूर्ति काटजू ने कहा कि नीतीश के शासन में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिती तो अच्छी है लेकिन मौजूदा सरकार में फ्रीडम ऑफ प्रेस नहीं है, जबकि लालू के समय में थी. उनके इतना कहने पर पटना कॉलेज के प्रिंसिपल लालकेश्वर प्रसाद आग-बबूला हो गये और मंच के नीचे से ही चिल्लाने लगे. यह जानना यहां आवश्यक है कि लालकेश्वर प्रसाद की पत्नी जदयू कोटे से विधायक हैं. और न्यायमूर्ती के खिलाफ सूबे के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और शिवानंद तिवारी जिस तरह अपनी खीझ निकाल रहे थे उसे बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका अपमानजनक मानता है. लेकिन नीतीश इस मुद्दे पर अब तक मौन ही साधे हुए हैं.

ऐसी कई घटनाऎं हैं, जिसे सत्ता के दबाव में अखबारों ने उचित कवरेज नहीं दिया. या बड़े जन समुदाय को प्रभावित करने वाली खबरों, राज्य स्तरीय खबरों को अंदर के पन्नों पे बिना पर्याप्त कवरेज के प्रकाशित की गई. एक ऐसा ही मामला है जिसे जो आज तक मुख्यधारा की मीडिया की खबर नहीं बनी.

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का पटना के आर्यकुमार रोड (मछुआटोली) स्थित मकान का कुछ भाग बिहार के उप-मुख्य मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री सुशील कुमार मोदी के नजदीकी रिश्तेदार श्री महेश मोदी ने “जबरन कब्ज़ा कर रखा है और उसमें दुकान चला रहे हैं.

राष्ट्रकवि की अस्सी-वर्षीया पुत्र-वधू हेमंत देवी के मुताबिक, “मकान के एक भाग में स्थित दुकान को सुशील कुमार मोदी के चचेरे भाई श्री महेश मोदी ने मासिक किराए पर लिया था। वर्षों बीतने के पश्चात जब खाली करने की बात आई तो वे यह कह कर धमकाने लगे कि उनके भाई बिहार के उप-मुख्य मंत्री हैं. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि दिनकर के पोते श्री अरविंद कुमार सिंह अपनी समस्या से लिखित रूप से प्रधानमंत्री तक को अवगत करा चुके हैं. उन्होंने इस संबंध में सूबे के मुखिया नीतीश कुमार से भी मुलाकात की. लेकिन न्याय के साथ विकास का दावा करने वाले मुख्यमंत्री दिनकर के परिजनों को अब तक न्याय नहीं दिला सके हैं. इकरारनामे के अनुसार, पिछले ३० अप्रैल २०११ को खाली कर देनी थी.

यह अकेली घटना नहीं है जिसे सत्ता पक्ष के दबाव में उचित कवरेज नहीं मिला. अभी हाल ही में सूबे के मंत्री प्रेम कुमार के साले ने गया जिले में जीआरपी के एक आरक्षी के उपर गोली चला दी. मामला यह था कि मंत्री का साला बबलू आरक्षी किशोरी रजक की पत्नी के साथ बहुत दिनों से छेड़-छाड़ कर रहा था. पटना में पदस्थापित आरक्षी जब अपने घर गया तो उसे इसकी जानकारी मिली, और उसने इसका विरोध किया. विरोध का अंजाम यह हुआ कि उस पर गोली चली और बबलू के गुर्गों ने उसके साथ मारपीट भी की. सत्ता का दबदबा कितना है यह इस बात से ही जाहिर होता है कि जब इस संदर्भ में गया के सीनियर एस.पी से बात की गई तो उन्होंने साफ कहा कि हम इस केस के बारे में जानते ही नहीं है, हमारे पास बहुत सारे केस हैं. यह ज्वलंत मामला भी राज्यस्तर की खबर नहीं बन पाई.

बिहार में मीडिया की स्वतंत्रता बाधित की जा रही है या नहीं इसका प्रमाण पिछले दिनों हुए आयोजन से लगाया जा सकता है. पटना के बरिष्ठ पत्रकारों के द्वारा बिहार में पत्रकारिता: विश्वसनीयता का संकट विषय पर एक गोष्ठी गांधी संग्रहालय में की गई. वहां मौजूद सारे पत्रकार यह मान रहे थे कि मौजूदा सरकार मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी है, वजह मोटी रकम के रूप में दिया जाने वाला विज्ञापन हो या कुछ और. गोष्ठी के दौरान बरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर ने कहा कि राज्य में पत्रकारिता को संरक्षित रखने के लिये पूरे पत्रकार जमात को प्रेस बिल वाली एकजुटता का परिचय देना होगा.

जदयू के निलंबित राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा ने मारकंडेय काटजू के बयान को बिहार में प्रेस पर अंकुश के आरोपों की पुष्टि बताया है. उन्होंने कहा कि बिहार में सरकार क्या कर रही है, यह प्रेस काउंसिल ने स्पष्ट कर दिया है. वहीं नंदीग्राम डायरी के लेखक और जनांदोलनों के पत्रकार पुष्पराज कहते हैं, बिहार के सारे अखबार सत्तापरस्त हो गये हैं. और स्टेट के स्पोक्स पर्सन की भुमिका निभाने में लगे हुए हैं. और जिस तरह से न्यायमूर्ती काटजू बोलने से रोकने की कोशिश की गई, वह न्यायमूर्ती काटजू का अपमान तो है ही, बिहार के लिये भी शर्मनाक है’.

फिलहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने तीन सदस्यीय टीम(राजीव रंजन नाग, अरुण कुमार और कल्याण बरुआ) का गठन कर दिया जो बिहार आकर इस बात की जांच करेगी.

बताते चलें कि फारविसगंज-भजनपुर गोलीकांड के बाद अखबारों की भुमिका से नाराज बिहार मीडिया वॉच ने 05/07/11 को ही प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि पटना से प्रकाशित प्रमुख हिंदी अखबारों की जनविरोधी और सत्तापरस्त भूमिका की जांच हो।

कार्टून: पवन

Thursday, February 16, 2012

आम जन की अनदेखी



बीते जनवरी को देश की प्रख्यात समाज सेविका मेधा पाटेकर बिहार में थीं. लोकशक्ति अभियान के तहत बिहार पहुंची मेधा, कई जिलों का दौरा करने के बाद, 27 जनवरी को राजधानी पटना में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश के सुशासन और विकास के मॉडल की जमकर आलोचना की.

लोगों का कहना है कि नीतीश जन-आंदोलनों के नेताओं से मिलना पसंद ही नहीं करते हैं. और इस बार भी जब राज्य के आम लोगों की रोजी-रोटी और जमीन के मुद्दे को लेकर मेधा ने उनसे समय मांगा तो उन्होंने मिलना उचित नहीं समझा. उनके प्रधान सचिव के द्वारा, थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पे वजह, व्यस्तता और बिमारी दोनों बताई गई. तबियत का नासाज होना और व्यस्त भी होना, अपने आप में हास्यास्पद है. मेधा कहती हैं कि इस सुशासन की सरकार के पास आम जनता के लिये समय नहीं है. नीतीश के वादे और सच्चाई में छेद है. वो आगे कहती हैं कि नीतीश स्मृति को टटोलें, वो खुद जन-आंदोलन से निकले हुए नेता हैं.

मेधा के बिहार दौरे से इतनी बात तो निकल कर सामने आई कि, अतीत में हुई कुछ घटनाओं के पीड़ितों को आज भी न्याय नहीं मिला है. और सरकार के कुछ निर्णय ऐसे हैं जो जबरन आम नागरिकों पर थोपे जा रहे हैं.

नीतीश के विभिन्न दौरों और यात्राओं के दौरान जब आम नागरिक या यूं कहें की पीड़ित-प्रताड़ित, वंचित नागरिक उनसे मिलना चाहते हैं, तो उन्हें मिलने नहीं दिया जाता है. उनकी समस्याओं को सुना नहीं जाता है.

मुख्यमंत्री के आस-पास के आला-अधिकारी-अर्दली उन्हें सबकुछ हरा-हरा दिखाना चाहते हैं, या स्वंय मुख्यमंत्री का ऐसा निर्देश है ? यह तो बहस का विषय है.

फारविसगंज-भजनपुर गोलीकांड के पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है. पिछले साल जून में हुई इस घटना में मुस्लिम समुदाय के चार लोग मारे गये थे. मारे जाने वालों में एक औरत और एक बच्ची भी शामिल है. बिहार पुलिस का क्रूरतम चेहरा, मात्र दो मिनट के फूटेज के द्वारा ही पूरी दुनिया ने देखा था.

राजग सरकार ने मामले की जांच के लिये न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था. आयोग को 22 दिसंबर 2011 तक जांच रिपोर्ट देनी थी. छह महीने बीत जाने के बाद भी आयोग ने कोई अंतरिम रिपोर्ट तक जारी नहीं की है. विपक्षी दलों के द्वारा जब यह मामला उठाया जाने लगा तब आयोग के कार्यकाल को 31 दिसंबर 2012 तक के लिये बढा दिया गया.

इससे पहले मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की टीम भजनपुर का दौरा कर चुकी है. अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद, अल्पसंखयक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को एक पत्र भी लिखा. पत्र में हबीबुल्ला ने कहा है कि घटना के बाद राज्य में अल्पसंख्यकों का विश्वास हिल गया है. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में विश्वास बहाली के लिये कई सिफारिशें भी सुझाई थी.

फारविसगंज के अपने दौरे के दौरान मेधा ने कहा कि सरकार जल्द से जल्द सुझाये गये सिफारिशों को लागू करवाये. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ती जाहिर की कि अररिया पुलिस प्रशासन के द्वारा तीन हजार लोगों को अज्ञात आरोपी बनाया गया है, वहीं राज्य सरकार द्वारा, गोली चलवाने वाली एस.पी गरिमा मल्लिक को पदोन्नती दी जाती है.

कोशी के क्षेत्र में भी अलग-अलग मुद्दों को लेकर लोगों में आक्रोश पनपता दिख रहा है. 2008 की त्रासदी से विस्थापित लोगों का साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी ढ़ंग से पुनर्वास नहीं हुआ है. आज भी विस्थापितों के हज़ारों हेक्टेयर खेतों पर रेत फैले हुए हैं. और लोग बांधों पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. आज भी 380 गांवों की दस लाख आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास की बाट जोह रही है. पहली बार पुनर्वास के नाम पर 12,084 परिवारों को तटबंध के बाहर बसाने के लिये भुमी आवंटित की गई. मगर विस्थापितों के मुकाबले जमीन कम पड़ गई और कई गांव के लोगों को तटबंध के भीतर ही रहना पड़ा. सरकार के द्वारा कहा गया था कि विस्थापित परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जायेगी. स्थानीय निवासी हुसैन कहते हैं जो सरकार घर नहीं दे सकी, वो नौकरी क्या देगी.

स्थानीय लोगों के लाख विरोधों के बावजूद कोसी महासेतु बनकर तैयार हुआ और उसका भव्य उद्घाटन भी हुआ. कोसी रेल महासेतु और एन.एच 57 के निर्माण को लेकर 100 गांवों की 75 हज़ार आबादी विस्थापित हो चुकी है. इतनी बड़ी आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास के बगैर तटबंधों पर शरण लेने या इधर-उधर भटकने को मजबूर हैं. कोसी महासेतु पीड़ित संघर्ष समीति के अध्यक्ष सत्यनारायण प्रसाद कहते हैं कि हम उद्घाटन के दिन केंद्रिय मंत्री सी.पी जोशी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गांधीवादी तरीके से विरोध कर रहे थे. हम उन्हें काला झंडा दिखा रहे थे. लेकिन प्रशासन ने हमें कार्यक्रम स्थल तक जाने ही नही दिया. बीच में ही एक स्थानीय ग्रामीण बोल पड़ते हैं, कहते हैं कि हमारे विरोध प्रदर्शन की खबरों को तो किसी अखबार ने छापा तक नहीं. यह कैसा प्रतिबंध लगाया जा रहा है हमलोगों पर.

सूबे के मुजफ्फरपुर जिले के मड़बन में एसबेस्टस फैक्ट्री का निर्माण चल रहा था. स्थानीय लोगों को जैसे ही इसकी भनक लगती है कि एस्बेसटस कैंसर कारक होती है, लोगों ने इस निर्माण का विरोध करना शुरु कर दिया. विरोध करने के दौरान कई लोग(महिला और पुरुष दोनो) पुलिस की लाठियों से घायल भी हुए. विरोध के बाद अंततः फैक्ट्री का निर्माण बंद हो गया. लेकिन आज भी वहां के 15-16 किसानों पर मुकदमे चल ही रहे हैं. इसी तरह बीते अक्टूबर माह को कांटी चौक पर चल रहे धरने को भी स्थानीय प्रशासन ने कुचलने का प्रयास किया. कांटी थर्मल निर्माण के समय ही सरकार के द्वारा कहा गया था कि, फैक्ट्री के पांच किलोमीटर के दायरे में चौबीस घंटे बिजली मुहैया कराई जायेगी. बिजली और मजदूरों के मांगों को लेकर स्थानीय लोग धरना पर बैठे हुए थे. शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे धरने को खत्म करने के लिये प्रशासन ने बने मंच को ढाह दिया. अगले दिन इससे आक्रोशित लोग सड़क पर उतर आये. प्रशासन ने जब इन लोगों पर लाठियां चलवाईं, तब जाकर लोगों ने प्रशासन की गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया. धरने में शामिल कई लोगों पर आज भी मुकदमें चल रहे हैं. एस.यू.सी.आई के अरुण कुमार कहते हैं सरकार और प्रशासन कोई भी विरोध को देखना पसंद नहीं करते हैं, भले ही वो शांतिपूर्ण क्युं न हो. कमिश्नर नें जांच का आदेश एस.पी और डी.एम को दिया है, जो कि खुद दोषी हैं. ऐसे में न्याय की उम्मीद कहां बचती है. यह तो दुर्भाग्य है कि हम अपने हक के लिये आवाज भी बुलंद नहीं कर सकते हैं.

अगर सरकार नहीं चेतती है तो देर-सबेर सुबे के बेगुसराई जिले में भी उसे आम जन के ऐसे ही आक्रोश का सामना करना पड़ेगा. बिहार राज्य विद्युत बोर्ड, बरौनी ताप विद्युत संयंत्र के बिस्तारीकरण की योजना पर अमल कर रही है. इसके लिये 3666 करोड़ रूपये की योजना भी स्विकृत कर ली गई है. विस्तारीकरण के तहत एश पॉण्ड(छाई निस्तारण) के लिये 565 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. रामदीरी गांव के चार पंचायतों से लगभग 700 एकड़ जमीन को अधिग्रहण किये जाने की योजना है. रामदीरी गांव के लोगों के जीविका का मुख्य उपाय खेती-किसानी ही है. अपने उपजाऊ खेत को गांव के लोग, सरकार को देना नहीं चाहते हैं. इस मामले को लेकर ग्रामीणों में काफी आक्रोश भी देखा जा रहा है. स्थानीय किसान कुंदन सिंह कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता है कि सरकार को विकास के लिये खेतिहर /उपजाऊ जमीन ही क्यों चाहिये? हमारा और हमारे ग्रामीणों की आजीविका ही इसी खेतों से चलती हैं. हम जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे.

इन तमाम मुद्दों पर नंदीग्राम डायरी के लेखक और जन-आंदोलनों के पत्रकार पुष्पराज कहते हैं कि नीतीश कुमार एक असंवेदनशील मुख्यमंत्री हैं. श्री कुमार आम नागरिकों के प्रति जिम्मेवार हैं ही नहीं. ये जिम्मेवार हैं उनके लिये जो शासक हैं, सत्ता में हैं या ब्युरोक्रेट्स हैं.

सूबे की सरकार और आम जनता के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार को फिलहाल आत्मचिंतन की जरूरत है.

Friday, October 21, 2011

रथ यात्रा के बहाने ..............!


भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित जन चेतना यात्रा की शुरुआत क्रांति पुरूष जयप्रकाश नारायण की जम्न स्थली सिताबदियारा से की गयी. 11 अक्टूबर 2011 को शुरू हुई इस जन चेतना यात्रा को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया. इस मौके पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली, बिहार के उप- मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सहित अनंत कुमार और रविशंकर जैसे भाजपा के अन्य वरिष्ठ नेता भी उपस्थित थे. इस रथ यात्रा में आडवाणी को उनके परिवार का भी साथ मिल रहा है. रथ यात्रा के दौरान आडवाणी की पत्नी कमला आडवाणी और बिटिया प्रतिभा आडवाणी भी उनके साथ होंगी. भापजा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सुशासन और स्वच्छ राजनीति के उद्देश्य से भ्रष्टाचार के खिलाफ इस रथ यात्रा की शुरुआत की गई है. 11 अक्टूबर से 20 नवंबर तक चलने वाली इस रथ यात्रा के द्वारा एक बार फिर आडवाणी एनडीए गठबंधन के पक्ष में जनाधार तैयार करने का प्रयास करेंगे. इस दौरान अपनी विभिन्न जनसभाओं द्वारा आडवाणी संप्रग गठबंधन में व्याप्त भ्रष्टाचार को उजागर भी करेंगे. हालांकि इस रथ यात्रा का एनडीए गठबंधन के अलावा सभी राजनीतिक दलों ने राजनीति स्टंट तथा सत्ता में दुबारा आने की कोशिश मात्र करार दिया है. ज्ञात हो कि इससे पूर्व भी आडवाणी ने पांच और रथ यात्राएं की हैं, जिनका एनडीए गठबंधन को कभी कभार फायदा भी हुआ है. लेकिन ज्यादातर मौकों पर आडवाणी अपनी रथ यात्रा के द्वारा जनसमर्थन प्राप्त कर पाने में असफल ही रहे हैं. अब यह देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा कि विभिन्न समस्याओं से जूझ रही संप्रग गठबंधन की सरकार को आडवाणी और कितना उलझा पाते हैं. और संप्रग गठबंधन के विरूद्ध जनसमर्थन प्राप्त करने में सफल हो भी पाते हैं या नहीं.

उम्मीद लगा बैठे हैं सिताबदियारा के लोग

दुबारा सत्ता में आने के बाद भी अब तक विकास की हवा सिताबदियारा से होकर नहीं बही थी. यह तो भला हो आडवाणी का जिनकी घोषणा के बाद सरकार की नींद टूटी और सिताबदियारा के काया पलट देने की कवायद आनन-फानन में शुरू की गई. रथ यात्रा की तिथी जैसे-जैसे नजदीक आने लगी उपर-उपर ही सही स्थिती बदलने जरूर लगी.

यह जानना भी दिलचस्प होगा कि सिताबदियारा कि आबादी 20 हजार है जिसमें कुल नौ हजार मतदाता हैं. बताते चलें कि यहां कुल 11 प्राथमिक विद्यालय, 3 मघ्य विद्यालय और एक हाई स्कूल है. आभावों के बावजूद भी यहां के लोग शिक्षा को लेकर जागरूक हैं, तभी तो यहां के बच्चे गांव की शिक्षा खत्म होते ही पास के यूपी महाविद्यालय में दाखिला लेने से नहीं हिचकते हैं.

जेपी आंदोलन की उपज रहे वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद या कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों की बागडोर संभाल चुके राम बिलास पासवान हों किसी ने अब तक उस ओर रूख नहीं किया. जेपी के नाम पर अपना परचम लहराने वाले श्री प्रसाद को तो अब उनकी जन्मस्थली तक जाने की फूर्सत ही नहीं मिली है. श्री जेपी ने अपनी पत्नी प्रभावती के नाम पर 1960 में एक पुस्तकालय का निर्माण करवाया था. आज उस पुस्तकालय में दो सौ पुस्तकें भी नहीं हैं. बताते चलें कि नीतीश कुमार का 10 फरवरी 2010 को यहां आना हुआ था, तब उन्होंने यह घोषणा की थी कि इस पुस्तकालय को मॉडल पुस्तकालय के रूप में विकसित किया जायेगा. लेकिन इस दिशा में अब तक एक भी कदम नहीं उठाये गए हैं. बचपन में जेपी जिस स्कूल में पढे थे वहां के शिक्षक अरूण कुमार बड़े ही गर्व के साथ कहते हैं कि यहीं जेपी ने स्कूली शिक्षा ग्रहण की थी. लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस है कि इस स्कूल को अब तक अपना एक भवन नहीं है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि अब तक उस गांव को जेपी की एक आदमकद प्रतिमा नसीब नहीं हुई है.

जेपी के गांव और उस इलाके में घूमते हुए आपको एक विरोधाभास भी देखने को मिलेगा. टहलते हुये अगर आप यूपी वाले उस हिस्से में चले जाते हैं जिसे पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर ने बड़े प्यार से बसाया था और नाम दिया जयप्रकाश नगर. यह नगर इतनी खूबसूरती से बसाया गया है कि यहां आज भी जेपी और चंद्रशेखर को आप महसूस कर सकते है. जेपी की पत्नी के नाम पर एक खूबसूरत पुस्तकालय बनवाया गया है. जेपी अपनी पत्नी के साथ जिस घर में रहते थे वहां आज भी उनके कपडे, बेड, टूटे हुये चप्पल और उनसे जुड़ी हुई यादें सहेज कर रखी हुई हैं. तस्वीरों की एक लम्बी श्रृंखला भी लगाई गई है जिसे देखकर 74 के संपूर्ण क्रांति को आप समझ सकते हैं. लोगों में इस बात को लेकर भी मतभेद है कि जेपी का जन्म हुआ कहां था? जयप्रकाश नगर के रहने वालों का मानना है कि जेपी का जन्म ही यूपी वाले हिस्से में हुआ था, वहीं सिताबदियारा के बिहार वाले हिस्से के लोगों का मानना है कि जेपी का जन्म बिहार में हुआ था लेकिन उनके बचपन में ही गांव में प्लेग फैली थी जिसकी वजह से उनके घरवाले पांच किलोमीटर दूर जाकर यूपी के बलिया जिले में बस गये.

अब तक मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रहे सिताबदियारा के लोगों को आडवाणी के आने से एक दिन पहले बिजली नसीब हुई है. और रथ को रवाना करने तक मुख्यमंत्री ने एक के बाद एक कई घोषणऐं भी की. कम से कम आडवाणी इसके लिये तो धन्यवाद के पात्र हैं ही कि उनकी धोषणा के बाद ही सही सरकार ने सिताबदियारा का रूख तो किया। क्रांती की जननी रही इस धरती के लोगों की उम्मीदें कहां तक पूरी होती है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा.

लगा हुआ है यात्रा का चस्का

11 अक्टूबर को सिताबदियारा से शुरू हुई जन चेतना यात्रा आडवाणी की पहली रथ यात्रा नहीं है. इससे पूर्व भी आडवाणी विभिन्न मौकों पर 5 बार रथ यात्रा कर चुके हैं. 1990 के बाद आड़वाणी की यह छठी रथ यात्रा है.

कुछ बातें इस यात्रा को खास बना देती है. अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के उद्देश्य से सोमनाथ से 25 सितंबर 1990 को शुरु हुई यात्रा को बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव ने रोक दी थी. आज उसी बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस रथ यात्रा को हरी झंडी दिखाई. खुद को प्रधानमंत्री पद के सशक्त दावेदार के रुप में पेश करने को लेकर भी यह यात्रा है. परोक्ष रुप से आडवाणी भी स्वीकार ही चुके हैं. वरना भ्रष्टाचार को लेकर इनकी पार्टी की छवी भी कोई साफ-सुथरी नहीं है. वेल्लारी बंधु, योदुरप्पा और निशंक जैसे कई चेहरे इनके भी पास हैं. वैसे चर्चा तो इस बात की भी है इस यात्रा के जरिये आडवाणी अपनी बेटी प्रतिभा को राष्ट्रीय राजनीति में प्रोजेक्ट करना चाहते हैं.

बहरहाल इस यात्रा से सिताबदियारा के लोग उम्मीद जरुर लगा बैठे हैं. वहां के लोगों को लगने लगा है कि विकास की बयार अब यहां भी बहेगी. इस यात्रा से कम से कम सिताबदियरा के लोगों का ही भला हो जाये वैसे देशहित के लिये कभी इनकी रथ यात्रा तो निकली नहीं है.

नोट:- अमित और विकास बाबू को विशेष धन्यवाद.

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