Thursday, February 16, 2012

आम जन की अनदेखी



बीते जनवरी को देश की प्रख्यात समाज सेविका मेधा पाटेकर बिहार में थीं. लोकशक्ति अभियान के तहत बिहार पहुंची मेधा, कई जिलों का दौरा करने के बाद, 27 जनवरी को राजधानी पटना में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश के सुशासन और विकास के मॉडल की जमकर आलोचना की.

लोगों का कहना है कि नीतीश जन-आंदोलनों के नेताओं से मिलना पसंद ही नहीं करते हैं. और इस बार भी जब राज्य के आम लोगों की रोजी-रोटी और जमीन के मुद्दे को लेकर मेधा ने उनसे समय मांगा तो उन्होंने मिलना उचित नहीं समझा. उनके प्रधान सचिव के द्वारा, थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पे वजह, व्यस्तता और बिमारी दोनों बताई गई. तबियत का नासाज होना और व्यस्त भी होना, अपने आप में हास्यास्पद है. मेधा कहती हैं कि इस सुशासन की सरकार के पास आम जनता के लिये समय नहीं है. नीतीश के वादे और सच्चाई में छेद है. वो आगे कहती हैं कि नीतीश स्मृति को टटोलें, वो खुद जन-आंदोलन से निकले हुए नेता हैं.

मेधा के बिहार दौरे से इतनी बात तो निकल कर सामने आई कि, अतीत में हुई कुछ घटनाओं के पीड़ितों को आज भी न्याय नहीं मिला है. और सरकार के कुछ निर्णय ऐसे हैं जो जबरन आम नागरिकों पर थोपे जा रहे हैं.

नीतीश के विभिन्न दौरों और यात्राओं के दौरान जब आम नागरिक या यूं कहें की पीड़ित-प्रताड़ित, वंचित नागरिक उनसे मिलना चाहते हैं, तो उन्हें मिलने नहीं दिया जाता है. उनकी समस्याओं को सुना नहीं जाता है.

मुख्यमंत्री के आस-पास के आला-अधिकारी-अर्दली उन्हें सबकुछ हरा-हरा दिखाना चाहते हैं, या स्वंय मुख्यमंत्री का ऐसा निर्देश है ? यह तो बहस का विषय है.

फारविसगंज-भजनपुर गोलीकांड के पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है. पिछले साल जून में हुई इस घटना में मुस्लिम समुदाय के चार लोग मारे गये थे. मारे जाने वालों में एक औरत और एक बच्ची भी शामिल है. बिहार पुलिस का क्रूरतम चेहरा, मात्र दो मिनट के फूटेज के द्वारा ही पूरी दुनिया ने देखा था.

राजग सरकार ने मामले की जांच के लिये न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था. आयोग को 22 दिसंबर 2011 तक जांच रिपोर्ट देनी थी. छह महीने बीत जाने के बाद भी आयोग ने कोई अंतरिम रिपोर्ट तक जारी नहीं की है. विपक्षी दलों के द्वारा जब यह मामला उठाया जाने लगा तब आयोग के कार्यकाल को 31 दिसंबर 2012 तक के लिये बढा दिया गया.

इससे पहले मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की टीम भजनपुर का दौरा कर चुकी है. अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद, अल्पसंखयक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को एक पत्र भी लिखा. पत्र में हबीबुल्ला ने कहा है कि घटना के बाद राज्य में अल्पसंख्यकों का विश्वास हिल गया है. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में विश्वास बहाली के लिये कई सिफारिशें भी सुझाई थी.

फारविसगंज के अपने दौरे के दौरान मेधा ने कहा कि सरकार जल्द से जल्द सुझाये गये सिफारिशों को लागू करवाये. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ती जाहिर की कि अररिया पुलिस प्रशासन के द्वारा तीन हजार लोगों को अज्ञात आरोपी बनाया गया है, वहीं राज्य सरकार द्वारा, गोली चलवाने वाली एस.पी गरिमा मल्लिक को पदोन्नती दी जाती है.

कोशी के क्षेत्र में भी अलग-अलग मुद्दों को लेकर लोगों में आक्रोश पनपता दिख रहा है. 2008 की त्रासदी से विस्थापित लोगों का साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी ढ़ंग से पुनर्वास नहीं हुआ है. आज भी विस्थापितों के हज़ारों हेक्टेयर खेतों पर रेत फैले हुए हैं. और लोग बांधों पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. आज भी 380 गांवों की दस लाख आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास की बाट जोह रही है. पहली बार पुनर्वास के नाम पर 12,084 परिवारों को तटबंध के बाहर बसाने के लिये भुमी आवंटित की गई. मगर विस्थापितों के मुकाबले जमीन कम पड़ गई और कई गांव के लोगों को तटबंध के भीतर ही रहना पड़ा. सरकार के द्वारा कहा गया था कि विस्थापित परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जायेगी. स्थानीय निवासी हुसैन कहते हैं जो सरकार घर नहीं दे सकी, वो नौकरी क्या देगी.

स्थानीय लोगों के लाख विरोधों के बावजूद कोसी महासेतु बनकर तैयार हुआ और उसका भव्य उद्घाटन भी हुआ. कोसी रेल महासेतु और एन.एच 57 के निर्माण को लेकर 100 गांवों की 75 हज़ार आबादी विस्थापित हो चुकी है. इतनी बड़ी आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास के बगैर तटबंधों पर शरण लेने या इधर-उधर भटकने को मजबूर हैं. कोसी महासेतु पीड़ित संघर्ष समीति के अध्यक्ष सत्यनारायण प्रसाद कहते हैं कि हम उद्घाटन के दिन केंद्रिय मंत्री सी.पी जोशी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गांधीवादी तरीके से विरोध कर रहे थे. हम उन्हें काला झंडा दिखा रहे थे. लेकिन प्रशासन ने हमें कार्यक्रम स्थल तक जाने ही नही दिया. बीच में ही एक स्थानीय ग्रामीण बोल पड़ते हैं, कहते हैं कि हमारे विरोध प्रदर्शन की खबरों को तो किसी अखबार ने छापा तक नहीं. यह कैसा प्रतिबंध लगाया जा रहा है हमलोगों पर.

सूबे के मुजफ्फरपुर जिले के मड़बन में एसबेस्टस फैक्ट्री का निर्माण चल रहा था. स्थानीय लोगों को जैसे ही इसकी भनक लगती है कि एस्बेसटस कैंसर कारक होती है, लोगों ने इस निर्माण का विरोध करना शुरु कर दिया. विरोध करने के दौरान कई लोग(महिला और पुरुष दोनो) पुलिस की लाठियों से घायल भी हुए. विरोध के बाद अंततः फैक्ट्री का निर्माण बंद हो गया. लेकिन आज भी वहां के 15-16 किसानों पर मुकदमे चल ही रहे हैं. इसी तरह बीते अक्टूबर माह को कांटी चौक पर चल रहे धरने को भी स्थानीय प्रशासन ने कुचलने का प्रयास किया. कांटी थर्मल निर्माण के समय ही सरकार के द्वारा कहा गया था कि, फैक्ट्री के पांच किलोमीटर के दायरे में चौबीस घंटे बिजली मुहैया कराई जायेगी. बिजली और मजदूरों के मांगों को लेकर स्थानीय लोग धरना पर बैठे हुए थे. शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे धरने को खत्म करने के लिये प्रशासन ने बने मंच को ढाह दिया. अगले दिन इससे आक्रोशित लोग सड़क पर उतर आये. प्रशासन ने जब इन लोगों पर लाठियां चलवाईं, तब जाकर लोगों ने प्रशासन की गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया. धरने में शामिल कई लोगों पर आज भी मुकदमें चल रहे हैं. एस.यू.सी.आई के अरुण कुमार कहते हैं सरकार और प्रशासन कोई भी विरोध को देखना पसंद नहीं करते हैं, भले ही वो शांतिपूर्ण क्युं न हो. कमिश्नर नें जांच का आदेश एस.पी और डी.एम को दिया है, जो कि खुद दोषी हैं. ऐसे में न्याय की उम्मीद कहां बचती है. यह तो दुर्भाग्य है कि हम अपने हक के लिये आवाज भी बुलंद नहीं कर सकते हैं.

अगर सरकार नहीं चेतती है तो देर-सबेर सुबे के बेगुसराई जिले में भी उसे आम जन के ऐसे ही आक्रोश का सामना करना पड़ेगा. बिहार राज्य विद्युत बोर्ड, बरौनी ताप विद्युत संयंत्र के बिस्तारीकरण की योजना पर अमल कर रही है. इसके लिये 3666 करोड़ रूपये की योजना भी स्विकृत कर ली गई है. विस्तारीकरण के तहत एश पॉण्ड(छाई निस्तारण) के लिये 565 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. रामदीरी गांव के चार पंचायतों से लगभग 700 एकड़ जमीन को अधिग्रहण किये जाने की योजना है. रामदीरी गांव के लोगों के जीविका का मुख्य उपाय खेती-किसानी ही है. अपने उपजाऊ खेत को गांव के लोग, सरकार को देना नहीं चाहते हैं. इस मामले को लेकर ग्रामीणों में काफी आक्रोश भी देखा जा रहा है. स्थानीय किसान कुंदन सिंह कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता है कि सरकार को विकास के लिये खेतिहर /उपजाऊ जमीन ही क्यों चाहिये? हमारा और हमारे ग्रामीणों की आजीविका ही इसी खेतों से चलती हैं. हम जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे.

इन तमाम मुद्दों पर नंदीग्राम डायरी के लेखक और जन-आंदोलनों के पत्रकार पुष्पराज कहते हैं कि नीतीश कुमार एक असंवेदनशील मुख्यमंत्री हैं. श्री कुमार आम नागरिकों के प्रति जिम्मेवार हैं ही नहीं. ये जिम्मेवार हैं उनके लिये जो शासक हैं, सत्ता में हैं या ब्युरोक्रेट्स हैं.

सूबे की सरकार और आम जनता के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार को फिलहाल आत्मचिंतन की जरूरत है.

2 comments:

  1. बहुत ही अच्छा लिखा है आपने. वास्तव में आज कल हर सरकार पिछली सरकार कि बरैया दिखाकर ही अपनी रोटी सेंक लेती है. जरुरत है कि आम जनता इस बात को समझे और तात्कालिक घटनाओ और चुनाव प्रचारो कि रंगीनियो के भुलावे में न आये..हालाँकि अभी तक जितने आये उनसे मुझे नितीश सरकार कुछ कम बेईमान लगी पर जाहिर है जितना ढोल पीता जा रहा उतनी आवाज़ नहीं निकल पा रही..

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  2. बहुत सारी खबर विस्तार से पढ़ी. बिहार की समस्याएं और इन समस्याओं के साथ यहाँ का जीवन अब स्वाभाविक सा लगता है. सिर्फ बिहार ही नहीं पूरा देश विकल्पहीन है. शुभकामनाएँ.

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