Saturday, May 19, 2012

सत्यानाश होती शिक्षा व्यस्था


मांग को लेकर शिक्षकों का शांतिपूर्ण प्रदर्शन
बदलते, बनते और बढते बिहार की चर्चा चहुं ओर है. सुशासन, न्याय के साथ विकास, सामेकित विकास जैसे कई विशेषणों से भी सूबे को नवाजा जाता है. बदलते बिहार का श्रेय लेते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई सम्मान भी ले चुके हैं. सत्ता संभालने के प्रारंभिक दिनों से ही शिक्षा इनकी प्राथमिकता रही है, ऐसा वो कहते भी हैं.
बिहार सरकार का कोई भी आयोजन हो, सरकारी उपलब्धियों की स्मारिका हो यूनीफॉर्म में साईकिल से स्कूल जाती बच्चियों के स्टेच्यु और तस्वीरें खूब दिखाये जाते हैं. बच्चों को स्कूल तक लाने की ये सब कवायद पिछले दिनों धरी की धरी रह गयी जब बिहार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिशन की रिपोर्ट सामने आयी. मिशन ने सूबे के कई हजार स्कूलों का सर्वे किया और पाया कि बिहार में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का घोर आभाव है. मिशन ने कुछ चौंकाने वाले तथ्य पेश किये. जैसे सूबे के पच्चासी फीसदी कक्षाओं में ब्लैकबोर्ड का इस्तेमाल नहीं किया जाता है, चौवालिस फीसदी शिक्षक स्कूल से गैरहाजिर रहते हैं वहीं सत्तर फीसदी स्कूलों में प्रार्थना तक नहीं होते हैं. जाने-माने शिक्षाविद प्रोफेसर विनय कंठ कहते हैं कि ब्लैकबोर्ड का इस्तेमाल होना शिक्षा के प्रति उदासीन रवैया को दर्शाता है.
सत्ता संभालते ही नीतीश ने शिक्षा के प्रति अपनी संवेदनशीलता दिखाते हुए कई महत्वपूर्ण फैसले लिये. बड़े पैमाने पर शिक्षकों के नियोजन की प्रकिर्या आरम्भ हुई. शुरुआत में नियोजन की प्रकिर्या पंचायत के प्रतिनिधियों के हाथ में दे दी गई थी, जिसमें व्यापक भ्रष्टाचार का भी मामला सामने आया था. नियोजन की यह पहली प्रकिर्या अंक के आधार पर हुई थी. सरोकार से जुड़े लोग उस समय मजाक भी करते थे कि सिपाही के लिये लिखित परिक्षा और शिक्षक का नियोजन अंक के आधार पर यह सिर्फ बिहार में ही हो सकता है. विद्यालय को उत्क्रमित किये जाने का भी फैसला लिया गया. प्राइमरी को उत्क्रमित कर मध्य, मध्य को उत्क्रमित कर उच्च और उच्च विद्यालय को उत्क्रमित कर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बना दिया गया. उत्क्रमित विद्यालयों के लिये अरबों रूपये का आबंटन भी हुआ जिसे भवन निर्माण, पाठ्य-पुस्तक, खेल सामग्री और प्रयोगशाला जैसी चीजों पर खर्च करना था. लेकिन इन रूपयों का बंदरबांट हो गया, आज भी कई ऐसे विद्यालय हैं जहां मूलभूत आवश्यकताओं का भी घोर आभाव है. जहां भवन बने हैं वहां घटिया सामग्री का इस्तेमाल हुआ है, कहीं भवन अधूरे ही बने हुए हैं तो बहुत से स्कूल ऐसे भी हैं जहां भवन बने ही नहीं हैं या उसे अब तक चारदिवारी नसीब नहीं हुआ है. योग्य शिक्षकों की कमी और संसाधनो का आभाव कमोबेश सूबे के अधिकांश जिलों में देखने को मिलता है. बानगी के तौर पर हम बेगुसराय के कुछ सरकारी विद्यालयों को देख सकते हैं.
हाई स्कूल नारेपुर की शिक्षा व्यवस्था बिल्कुल चौपट होने की स्थिती में है. यहां नौंवीं और दसवीं के बारह सौ छात्रों के लिये मात्र नौ शिक्षक हैं. छात्रों को बैठने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं है और स्कूल में कक्षाओं का भी घोर आभाव है. हाई स्कूल यह समस्या पिछले एक साल से झेल रहा है. एक शिक्षक नाम नहीं छापने के शर्त पर कहते हैं कि नये शैक्षिणिक सत्र शुरु हुए महीने दिन से अधिक हो गये लेकिन अब तक सभी छात्रों को किताबें नहीं मिल सकी है. किताबों को लेकर हर साल यही स्थिती रहती है, छात्रों को सारी किताबें नैंवे या दसवें महीनें में जाकर ही मिल पाती है. जिले के एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय के बच्चों से जब पूछा जाता है कि “एक किलोमीटर में कितने मीटर” तो छात्र तो छात्र शिक्षक भी सही जवाब नहीं दे पाते हैं. वहीं एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय में कोई भी शिक्षक रोमन में 49 नहीं लिख पाते हैं. कैसी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा बिहार के छात्रों को दी जा रही है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है.
इधर बेगुसराय के प्राथमिक शिक्षक भी सरकार की नीतियों का विरोध करते दिखते हैं. पिछले दिनों जिले में हुई भाजपा कार्यकारिणी की बैठक का भी इन शिक्षकों ने विरोध किया था और उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को अपना ज्ञापन भी सौंपा था. प्राथमिक शिक्षकों का कहना है कि अठारह साल बीत जाने के बाद भी उनलोगों को प्रोन्नती नहीं मिली है. जबकि जिले के 725 मध्य स्कूलों में मात्र आठ या दस ही ऐसे स्कूल हैं जिन्हें प्रधानाध्यापक नसीब है, बांकी के स्कूल 1994 से ही कार्यकारी प्रधानाध्यापक के भरोसे चल रहा है. जबकि ऐसा नीयम है कि वैकल्पिक व्यवस्था का उपयोग छह माह तक ही किया जा सकता है. प्राथमिक शिक्षक रंजन कहते हैं कि कॉरपोरेट विद्यालयों और सरकार के बीच तारतम्य बना हुआ है, यही वजह है कि सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षण व्यवस्था के प्रति उदासीन है.
ऐसा नहीं है कि सिर्फ मोदी का ही विरोध हुआ और समस्या सिर्फ बेगुसराय जिले की ही है. इनदिनों सूबे के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सेवा यात्रा पर हैं. नियोजित शिक्षकों का विरोध उन्हें मोतिहारी, सहरसा सहित कई जिलों में झेलना पड़ा है. मोतिहारी में शिक्षकों ने अर्धनग्ण होकर प्रदर्शन किया और सड़कों पर भीख भी मांगा. वहीं सहरसा में मुख्यमंत्री के चल रहे जनता दरबार में वहां के शिक्षकों ने जम कर विरोध किया.
बताते चलें कि बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ बिहार के शिक्षकों का एक मजबूत संगठन है, जिसने शिक्षकों की लंबी लड़ाई लड़ी है, और संघ के खाते में ढेर सारी उपलब्धियां भी हैं. लेकिन बाद के दिनों में माध्यमिक शिक्षक संघ की धार कुंध पड़ती गई और यह अनायास नहीं हुआ. इसकी नींव सीपीआई का लालू के साथ समझौते के दौरान ही पड़ गई थी, क्योंकि माध्यमिक शिक्षक संघ पर हमेशा से सीपीआई का वर्चस्व रहा है. सीपीआई के पूर्व सांसद शत्रुधन प्रसाद सिंह इसके अध्यक्ष हैं. हाल के दिनों में बिहार के नियोजित शिक्षकों ने अपना अलग “नवनियुक्त माध्यमिक शिक्षक संघ” बना लिया. यह पूछे जाने पर कि माध्यमिक शिक्षक संघ के होते हुए आपको एक अलग संगठन की आवश्यकता क्यों पड़ी? नियोजित शिक्षकों के प्रदेश उपाध्यक्ष नवीन कुमार नवीन कहते है, “माध्यमिक शिक्षक संघ सुविधा की लड़ाई लड़ता है और हमें अपने अस्तित्व पर खतरा है. माध्यमिक शिक्षक संघ लड़ाई में हमारा साथ इमानदारी से नहीं दे पाती है.” नियोजित शिक्षकों की मांग है कि उनके पद को स्विकृत किया जाय, समान कार्य के लिये समान वेतन का प्रावधान हो तथा नियोजित शिक्षकों का एक नियंत्री पदाधिकारी हो. यहां यह जान लेना आवश्यक है कि इस मंहगाई में भी इन नियोजित शिक्षकों का वेतन नियुक्त शिक्षकों की तुलना में काफी कम है. प्राइमरी और मिडिल के शिक्षकों को छह से सात हजार और उच्च विद्यालयों के शिक्षकों का वेतन साढे साथ से आठ हजार मासिक ही दिया जाता है. बिख्यात शिक्षाविद अनिल सदगोपाल नियोजन यानी ठेके पर शिक्षकों के बहाली और उसे दिये जा रहे मानदेय के खिलाफ हैं, कहते हैं कि जिसके जिम्मे हमारे बच्चों को शिक्षा देने का और सुसंस्कृत करने का काम होता है, उससे हम ठेके पर कैसे काम ले सकते हैं. अभी पिछले दिनों ही पटना हाई कोर्ट ने नियोजित शिक्षकों के बारे में कहा था कि यह एक विशेष प्रकार की नियुक्ति है जिसे शिक्षकों के दर्जे में नहीं रखा जा सकता है. गौरवशाली अतीत को पाने को बेकरार बिहार सरकार पर अदम गोंड्वी की रचना सटीक बैठती है कि “तुम्हारे फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है”.

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