Monday, September 19, 2011

धोबी के कुत्ते सी हालत मेरी

बाबू जी मेरे वामपंथी विचारधारा के हैं. जाति, गोत्र, धर्म से उन्हें कुछ खास मतलब रखते नहीं देखा अब तक. यह उनका दिया हुआ संस्कार ही है कि मैं सामंती विचारधारा (कुछ एक घरों को छोड़ कर) वाले मुहल्ले में पले-बढे़ होने के बावजूद खुद को इस घटिया मानसिकता से अलग रख सका.

ऐसा नहीं है कि मेरा मुहल्ले के कनिष्ठों और वरिष्ठों से कोई सरोकार नहीं है. कईयों से बात-चीत भी होती है, बस औपचारिक. किसी से घनिष्ट संबंध नहीं हैं मेरे, लेकिन हां दूसरी जातियों में कई लोग मेरे बहुत ही अच्छे मित्र हैं. और यही वजह है कि मैं अपने मुहल्ले के लड़कों के लिये आलोचना का पात्र हूं. ऐसे कई मौके आये जब मैने अपने मुहल्ले के निर्णय का मुखर विरोध भी किया. मेरी नज़र में न मैं सवर्ण हुं न वो दलित. वो सिर्फ मेरे मित्र हैं, संबंधी हैं. अब तक मुझे उनसे ढ़ेर सारा प्यार-स्नेह भी मिलता रहा है. यही वजह है कि वंशानुगत संबंधों से इतर भी मेरे ढेर सारे रिश्ते हैं. लेकिन कुछ घटनाऎं ऎसी होती हैं जहां आपकी सोच, आपके सिद्धांत आप ही को गलत लगने लगते हैं.

पिछले दिनों मेरे चचेरे भाई की हत्या गांव में ही अपराधियों ने कर दी. मेरा भाई बेगुसराई पुलिस अधीक्षक कार्यालय के गोपनीय शाखा में तैनात था. अपने पिता का इकलौता संजीव हमसबों का अच्छा मित्र हुआ करता था. गांव में हम लड़कों का एक ग्रुप है. ये लड़के सामाजिक, वैचारिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय भुमिका निभाते हैं. संजीव भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इन सारी गतिविधियों में अब तक हमारे साथ हुआ करता था. पुलिस की नौकरी मे होने के बावजूद संजीव काफी मृदु स्वभाव का था. अभी हाल ही में उसने हम दोस्तों के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि एक कोचिंग सेंटर खोला जाय जहां गांव के आठवीं, नौवीं और दसवीं के गरीब बच्चों को मुफ्त में पढाया जायेगा और इसमें होने वाले सारे खर्च की जिम्मेवारी उसने खुद ली. अभी इसपर मंथन चल ही रहा था कि………………………….

तेरह अगस्त की उस रात को शायद मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा. रक्षाबंधन के साथ-साथ उसी दिन उसकी इकलौती बेटी का पहला जन्मदिन भी था. इसी खुशी में भाई ने घर में एक छोटी सी पार्टी भी रखी थी. एक दिन पहले उसने भी मुझसे फोन पर बात की, काम की व्यस्तता की वजह से मैने आने में असमर्थता जाहिर की और समझा-बुझा कर उसे मना लिया.

मेहमानो को विदा करने के बाद अब दोस्तों की बारी थी. रात के करीब ग्यारह बज रहे होंगे, वह दोस्तों को छोड़ने गांव के ही चौक तक गया. लौटते क्रम में घात लगा कर बैठे तीन-चार अपराधियों ने उसे रोका और उसके सीने में गोलियां उतार दी. बिहार पुलिस का वह जवान वहीं मौके पर ढेर हो गया.

अभी तो पीहु के सर से बर्थ-डे वाला कैप भी नहीं उतरा था कि उसके सर से बाप का साया छीन लिया गया. अभी-अभी जिस घर में खुशियां मनायी जा रही थी अब वहां का दृश्य हृदयविदारक हो चला था. सूचना मिलते ही पुलिस कप्तान सहित जिले के कई आला-अधिकारी घटना स्थल पर पहुंचे. इलाके को सील करने के वजाय वे वहां ऐसे खड़े रहे जैसे सांप सूंघ गया हो.

घटना की सूचना मुझे भी दी गई और मैं पहली सुबह को ही घर पहुंच गया था. अपने होश-ओ-हवाश में न होने की वजह से मै काफी भला-बुरा बड़बड़ा रहा था, मेरे परिजन बेसुध पड़े हुए थे और दोस्तों में काफी रोष था. श्राध क्रम होने तक मैं भी घर पर ही रहा. इस बीच कई बार मैने सुशासन बाबू के उस सुकोमल और तथाकथित तेज-तर्रार पुलिस कप्तान से भी मिला. मैने कई बार उन्हें अपराधियों से जुड़ी पुष्ट-अपुष्ट खबरें भी दी. लेकिन अफसोस अपराधी अब तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर है. पुलिस कप्तान अब तक मुझे और मेरे परिजनों को तरह-तरह की सांत्वना ही दे रहे हैं. संजीव जितना आपका था उतना ही मेरा था, मैं अपराधियों को छोड़ुंगा नहीं, आपको न्याय जरूर मिलेगा……वैगेरह-वैगेरह.

खैर बात आगे बढती रही और मेरे चाचा को चार गवाह की जरूरत हुई. चाचा ने मेरे दो दोस्तों को भी गवाह बनाया. जैसे ही ये खबर मेरे दोस्तों को लगी उनके चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी. साथ जीने- मरने की कसमें खाने वाले मेरे दोस्त, घटना के बाद मारे गुस्से के बदला ले लेने तक की बात कहने वाले मेरे दोस्त, आदर्श और समाज की नित नई परिभाषा गढने वाले मेरे दोस्त आज सब के सब बगलें झांक रहे थे. गवाह न गुजरने को लेकर सबके पास ढे़रों मजबूरियां थीं. बात वही हुई कि हर किसी को चंद्र शेखर आजाद अच्छे लगते हैं लेकिन कोई भी आजाद को अपने घर पैदा होने की कामना नहीं करता है.

आज किसे अपना कहुं, किसके सामने मदद के लिये हाथ फैलाऊं, सिधान्तों और उसूलों के कारण मैने जिसका साथ छोड़ दिया या फिर उसके सामने जिसने बिपत्ती की घड़ी में मेरा साथ छोड़ दिया. एक कहावत याद आ रही है धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का”, फिलहाल अपनी हालत मुझे धोबी के कुत्ते जैसी लग रही है.

देखा-सुनी