Thursday, September 24, 2009

प्रेम या पूर्वाग्रह

बरसों बाद उनसे,
हो रही थी बात |
वही खनकती आवाज,
वही सादगी आज भी |
दूर होते हुए भी हो रहा था,
आत्मीयता का आभास |
थोड़ी हडबडाहट थी उनमे,
जैसे पूछ लेना चाहती हो,
सबकुछ चंद समय में |
बड़ी ही उत्सुकता से बताया,
अपनी बच्ची नाम,
जो कि बिल्कुल वही था,
जिसकी कभी हम कल्पना करते थे |
बातों ही बातों में बनाते थे घर,
और रखते थे सबके नाम |
हंसते हुए बोल पडी,
कितना अच्छा है संयोग,
कि हो रही है आपसे बात |
मैंने पुछा, दुबारा...फिर...कब.......
आह भरती हुई कहती गयी,
हो जाया करेगा ऐसा ही संयोग |
खुश हूँ मैं भी इस संयोग पर,
लेकिन कहूँ क्या इसे,
प्रेम या पूर्वाग्रह .............|

Sunday, September 13, 2009

तुमसे मिलने को सागर क्यूँ ऐसी चाहत होती है

जब कहीं किसी चेहरे पर शराफत होती है
बर्षों से सहेजी पास उसके आदमियत होती है

वो बैठती है इस कोने मैं उस कोने में बैठता हूँ
यूँ ही मचलता नहीं मैं सब मूक इजाज़त होती है

अपनी तबियत ही ऐसी है हार मानेगी कहाँ
बारहा दिल टूटता है बारहा मुहब्बत होती है

कलेजा फटता है कैसे ये ज़रा देख लेना
बाबुल के घर से कैसे बेटी रुख्सत होती है

समझाते हैं भोले मन से कितना प्यारा लगता है
घरवालों से कभी-कभी बच्चों को शिकायत होती है

महाजन धमकता है द्वार पर माह के शुरुआत में
क्या बताऊँ यार तब कैसी फजीहत होती है

है समर्पण का भाव कैसा कि अस्तित्व भी मिटा लेते
तुमसे मिलने को सागर क्यूँ ऐसी चाहत होती है

Monday, September 7, 2009

बिना तजुर्बे के सागर कोई निदान नहीं होगा

उसे इस सन्दर्भ अब तक संज्ञान नहीं होगा
थोडा मनचला है पर बेशक बेईमान नहीं होगा

रिश्तों में विश्वास है स्नेह यहाँ पनपते हैं
मेरा घर, घर रहेगा मकान नहीं होगा

अभी उम्र उसकी है माँ-बापु से कहता हूँ
वो हमसे छोटा है, क्या शैतान नहीं होगा

अगर सरकार चाही, तो निसंदेह मेरे भाई
कोई कमजोर नहीं होगा, कोई बलवान नहीं होगा

हाथ जोड़ मालिक कहता है जो भी तुम्हें
उसके दिल में तेरे लिए सम्मान नहीं होगा

हम अबीर भी उडाते हैं और सेवइयां खूब खाते हैं
मेरा गाँव कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान नहीं होगा

उसे नींद आयेगी कैसे इस गरीब-खाने में
इक चारपाई है जो दीवान नहीं होगा

जवानी के दहलीज पर वो कदम रखा है अभी-अभी
बिना तजुर्बे के सागर कोई निदान नहीं होगा

Friday, September 4, 2009

है वजन नहीं सागर अब तेरे बहर में

हाथ फैलाए फिरता हूँ अब शहर में
तरस खाए कोई मुझपे इक नज़र में

तेरी सल्तनत खुदा हो तुझी को मुबारक
फल-फूल, पत्ती मेरा कुछ भी नहीं तेरे शज़र में

पहचान एक-एक कर दे गए सभी
मिलते रहे हैं जो भी, अब तक सफ़र में

इरादे को अटल रखना था मुमकिन नहीं
ले गया वक़्त बहा के अपनी लहर में

मुंह छिपाए फिरता हूँ मुफलिसी के कारण
बन गया हूँ अजनबी आज अपने ही घर में

गाना तो दूर कोई पढ़े भी न अब तुझे
है वजन नहीं सागर अब तेरे बहर में

Tuesday, September 1, 2009

चले आते हैं लोग बिन बुलाए हुए

वो पल उनके साथ बिताये हुए
हर ख़ुशी हर ग़म आजमाए हुए

मरहम लगाने का रिवाज़ कुछ ऐसा है
चले आते हैं लोग बिन बुलाए हुए

मेरे हो जाते हैं जो भी आते हैं यहाँ
सब हुनर उनके ही हैं सिखाये हुए

सिलवटें बिस्तर की देख सोचता हूँ
आयेंगे वो कभी बिन बताये हुए

ठगा सा लग रहा हूँ आज ऐसे
कुछ बच्चे हों जैसे फुसलाये हुए

सब्र कर ले कुछ तू ही सागर
लगते हैं लोग सब बौराए हुए

देखा-सुनी