Thursday, March 31, 2011

डुमरी मोरा गाँव


रात के करीब आठ बज रहे होंगे. हमारी ट्रेन बेगुसराय स्टेशन पर रुकी. भारतीय परंपरा को निभाते हुये ट्रेन अपने नियत समय से मात्र दो घंटे लेट थी। मैं झट से स्टेशन से बाहर निकला अैर एक रिक्शे पर जाकर पसर गया.
भैया डुमरी जाना है.
25 रूपये लगेंगे,
मेल-जोल के मूड में मै भी नहीं था, हामी भर दी.
मुख्य शहर से हम गांव की ओर बढने लगे थे। धीरे-धीरे बिजली की चकाचऔंध गायब हो रही थी. अब हम गांव को जाने वाली मुख्य सड़क पर आ गये थे। बिल्कुल ही धुप्प अंधेरे में वो हमसे बातें करता हुआ बड़ी ही तेजी से रिक्शा खींचे जा रहा था, मैंने अपने बैग को कस कर पकड़ लिया था. क्योंकि अबतक के अनुभव से मुझे यही ज्ञात था कि हमारे गांव की सड़क पर गड्ढे नहीं बल्कि गांव की सड़क ही गड्ढे में है. थोड़ी दूर चलने के बाद मैं आश्वस्त हो गया कि सड़क चिकनी-चुपड़ी है.
मैने मन ही मन सुशासन बाबु को धन्यवाद दिया कि वाह साहब वाकई आपने विकास किया है.
थोड़े समय बाद ही मैं घर पहुंच गया था. मैं बोल पड़ा, वाह रे गांव का अनुमानित समय से पहले ही घर पहुंचा दिया, वो भी बिना हिचकोले.
सबसे मिलने-जुलने और खाना खाने के बाद मैं भी सोने चला गया.
सुबह हो चली थी. मैं बबूल का दतवन मुंह में दबाये मुहल्ले की सड़क पर टहल-टहल कर गांव को निहार रहा था. कितना बदल गया है मेरा गांव हर घर के छत पर पानी की टंकी, दलान पर नल की टोंटी. हर दूसरे व्यक्ति के हाथ में मोबाइल. यह सब देखकर बड़ा ही अच्छा लग रहा था.
बच्चों के स्कूल जाने का समय हो चला था. DAV, DPS और भी कई स्कूलों की गाडि़यां अब मेरे गांव तक भी आने लगी थी. मेरे पड़ोस की दादी चाची भाभी अपने अपने घर से बच्चों को लेकर सड़क के किनारे खड़ी थीं.
अचानक मेरी नज़र ठिठकी, मैंने देखा कि कुछ बच्चे अपने कांख के नीचे बोरिया और पन्नी में अपना बस्ता दबाये सरकारी स्कुल को जा रहे हैं. मेरे मुहल्ले के उस सरकारी स्कुल में दलितों के बच्चे पढते हैं या उन सवर्णो के बच्चे पढते हैं जो आर्थिक रूप से दलित हैं.
वह स्कूल मेरे घर से थोड़ी ही दूरी पर है सो मेरा जाना वहां भी हुआ.
पीपल का विशाल पेड़, कुंआ, पंचायत भवन, मंदिर और इन सब के पास ही वो सरकारी स्कुल मुझे अपने बचपन के दिन याद आ रहे थे. इन सब के बावजूद भी बहुत कुछ बदल चुका था. कुआं लगभग सूख गया था, पीपल के उस पेड़ के नीचे लोग आज भी ताश खेल रहे हैं. बस थोड़ा सा अंतर है, आज बूढे अैर नौजवान एक साथ चौकड़ी जमाये हुये हैं. मैं बुदबुदाया कि वाह इसे कहते हैं रेडिकल होना.
चूंकी शहर मेरे गांव के करीब आ गया है सो वहां की जमीन मंहगी हो गयी है. इन नौजवानो का प्रमुख शगल है जमीन बेच कर अय्याशी करना. नयी-नयी बाइक, नये-नये मोबाइल इनके रूतबे को बढाता है. और जो थोड़े सही हैं सूद पर पैसे लगाते हैं.
कुछ दिन गांव मे रहने पर कुछ और ही पता चला. जो मेरे हमउम्र हैं वो इसी स्कुल के पास मंडराते या बैठे रहते हैं. उनका काम होता है वहां बैठ कर स्कुल की जवान हो रही लड़कियों पर डोरे डालना, वहीं बैठ कर दारू-बीयर पीना. अब तो मेरे गांव मे भी चिल्ड बीयर मिलने लगी है. नितीश बाबु ने सिर्फ सड़कें ही नहीं, ठेके को भी गांव-गांव तक पहुंचाया है.
पता करने पर मालूम हुआ कि कुछ लड़कियां तो इनके बहकावे आ गयी हैं लेकिन कुछ ने इसका विरोध करते हुये इसकी जानकारी अपने बाप-भाई को दे दी. ये गरीब और दबे-कुचले बाप इन सवर्ण के लौंडे को कुछ कहने से रहे उल्टे कच्ची उम्र में ही बेटी को ब्याह देते हैं.
मैंने मुहल्ले के कुछ लोगों से इसकी शिकायत भी की लकिन कुछ हल निकलता दिखा नहीं. कुछ दिनों बाद मैं भी अपनी रोजी-रोटी के लिये वापस नौकरी पे आ गया.
आज गांव से एक लड़का आया है और अचानक घटनायें ताजा हो गई. बातों ही बातों में उसने बताया कि स्कुल में पढ रही एक लड़की मुहल्ले के एक लड़के के बहकाबे में आ गयी है. यह वाकया पूरे गांव में चर्चा का विषय है. दोनों जाती से सवर्ण हैं और मेरे ही मुहल्ले के हैं. बात यहीं खत्म नहीं होती है ये दोनो रिश्ते में चाचा-भतीजी हैं.
आज खुद पर पड़ी है तो मेरे मुहल्ले वासी को नैतिकता और मर्यादा याद आ रही है.
अगर शहरीकरण होने से इतना कुछ बदलता है तो बेहतर है गांव गांव ही रहे.

देखा-सुनी