सामंजस्य बिठाना भी एक कला है. ज़िंदगी में कई ऎसे मोड़ आते हैं, जब इंसान सामंजस्य और समझौते में फर्क करना भूल जाता है. भागमभाग की इस जीवनशैली में हम सेल्फकंसंट्रेटेड होते चले जाते हैं. खुद को लेकर पनपता असुरक्षा का भाव हमें इतना कन्फाइंड कर देता है कि हमारे चाहने वाले धीरे-धीरे हमसे दूर होने लगते हैं. हम अपने चारों ओर एक काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं और ताउम्र ज़िंदगी जी लेने का बस नाटक करते रहते हैं.
प्रोफेशनलिज्म हमारी संवेदनाओं पर एक मोटी परत चढा देती है और धीरे-धीरे हम अपनी आवश्यक औपचारिकताओं को नज़रअंदाज करने लगते हैं. धीरे-धीरे हमसब स्वभाव से भी अवसरवादी हो जाते हैं. हमें सहकर्मियों से बात करने की फुरसत मिल जाती है. लाख व्यस्तताओं के बावजूद भी हम अपने बॉस को ग्रीट करना नहीं भूलते हैं.
हां, हम भूल जाते हैं या फिर हमें वक्त नहीं मिलता है अपने मां-बाबूजी और अन्य परिवारवालों के लिए. इस सबके लिये हमारे पास ठोस वजह भी होती है. हम पर प्रेशर होता है करियर, समाज और सरोकार का. सिर्फ अपना परिवार ही तो परिवार नहीं होता न. हमें याद नहीं रहता है कि हमने आखरी बार कब मां से बात की थी. अगर कभी स्नेह से वो शिकायत करती भी हैं तो हमारे पास माकूल सा जवाब होता है कि बाबूजी से तो बात कर ही लेता हूं. हमें नहीं याद है कि डॉक्टर ने उन्हें कौन सी दवाई अब उम्र भर लेने को कहा है. लेकिन उन्हें आज भी याद है कि बचपन में मुझे किस डॉक्टर का ट्रीटमेंट मुझे ज्यादा सूट किया करता था. राखी के मौके पर हॉस्टल से मेरे आने तक बहन भूखी रहती थी, भले शाम क्यूं न हो जाए. बिना राखी बांधे वो एक निवाला भी नहीं खाती थी. आज मेरी इस अतिमहत्वाकांक्षी दुनिया को वो भी समझ गई है. राखी कूरियर कर देती है, पूछ लेती है मिल गया…बांध लिए….और वो खुश हो लेती है. हमें याद है बाबू जी ने कई बार अपनी ख्वाहिशों को हमारी खुशी के लिये दफनाया था. आज जब हमारी बारी है तो हम सामंजस्य बिठाने के बजाय इससे पल्ला झाड़ते नज़र आते हैं.
जीवनसाथी चुनने को लेकर भी यही ऊहापोह बनी रहती है. हमारी कोशिश होती है कि हमें ऎसा पार्टनर जो हमारे कॅरियर ओरिएंटेड माइंड पर टीका टिप्पणी न करे. वो हमारे कॅरियर के ग्रोथ मे मददगार हो. सेंटीमेंट, स्नेह सब सेकेंडरी हो जाती है.
वस्तुतः सबकुछ पा लेने, खुद को सेक्योर कर लेने की अंधी चाहत हमे ऎसे मोड़ पर ला खड़ा करती है, जहां सबकुछ होते हुए भी हमारे पास बहुत कुछ नहीं होता है.जब तक हमें इसका एहसास होता है परिस्थितियां बदल चुकी होती है. हमारे चाहने वाले एक माइंडसेट तैयार कर लेते हैं कि हमारा लाइफ स्टाइल ही यही है. और जब हमें जरूरत होती है स्नेह, प्रेम, वात्सल्य की तो हमारे चारों ओर सिवाय निर्वात के कुछ नहीं मिलता. ज़िंदगी जीने के लिये हमें सामंजस्य बिठाने की कला सीखनी होगी. हमे फर्क करना सीखना होगा समझौते और सामंजस्य में।