Saturday, April 16, 2011

ज़िंदगी की तलाश में ये कहां आ गए हम?

सामंजस्य बिठाना भी एक कला है. ज़िंदगी में कई ऎसे मोड़ आते हैं, जब इंसान सामंजस्य और समझौते में फर्क करना भूल जाता है. भागमभाग की इस जीवनशैली में हम सेल्फकंसंट्रेटेड होते चले जाते हैं. खुद को लेकर पनपता असुरक्षा का भाव हमें इतना कन्फाइंड कर देता है कि हमारे चाहने वाले धीरे-धीरे हमसे दूर होने लगते हैं. हम अपने चारों ओर एक काल्पनिक दुनिया बना लेते हैं और ताउम्र ज़िंदगी जी लेने का बस नाटक करते रहते हैं.

प्रोफेशनलिज्म हमारी संवेदनाओं पर एक मोटी परत चढा देती है और धीरे-धीरे हम अपनी आवश्यक औपचारिकताओं को नज़रअंदाज करने लगते हैं. धीरे-धीरे हमसब स्वभाव से भी अवसरवादी हो जाते हैं. हमें सहकर्मियों से बात करने की फुरसत मिल जाती है. लाख व्यस्तताओं के बावजूद भी हम अपने बॉस को ग्रीट करना नहीं भूलते हैं.

हां, हम भूल जाते हैं या फिर हमें वक्त नहीं मिलता है अपने मां-बाबूजी और अन्य परिवारवालों के लिए. इस सबके लिये हमारे पास ठोस वजह भी होती है. हम पर प्रेशर होता है करियर, समाज और सरोकार का. सिर्फ अपना परिवार ही तो परिवार नहीं होता न. हमें याद नहीं रहता है कि हमने आखरी बार कब मां से बात की थी. अगर कभी स्नेह से वो शिकायत करती भी हैं तो हमारे पास माकूल सा जवाब होता है कि बाबूजी से तो बात कर ही लेता हूं. हमें नहीं याद है कि डॉक्टर ने उन्हें कौन सी दवाई अब उम्र भर लेने को कहा है. लेकिन उन्हें आज भी याद है कि बचपन में मुझे किस डॉक्टर का ट्रीटमेंट मुझे ज्यादा सूट किया करता था. राखी के मौके पर हॉस्टल से मेरे आने तक बहन भूखी रहती थी, भले शाम क्यूं न हो जाए. बिना राखी बांधे वो एक निवाला भी नहीं खाती थी. आज मेरी इस अतिमहत्वाकांक्षी दुनिया को वो भी समझ गई है. राखी कूरियर कर देती है, पूछ लेती है मिल गया…बांध लिए….और वो खुश हो लेती है. हमें याद है बाबू जी ने कई बार अपनी ख्वाहिशों को हमारी खुशी के लिये दफनाया था. आज जब हमारी बारी है तो हम सामंजस्य बिठाने के बजाय इससे पल्ला झाड़ते नज़र आते हैं.

जीवनसाथी चुनने को लेकर भी यही ऊहापोह बनी रहती है. हमारी कोशिश होती है कि हमें ऎसा पार्टनर जो हमारे कॅरियर ओरिएंटेड माइंड पर टीका टिप्पणी न करे. वो हमारे कॅरियर के ग्रोथ मे मददगार हो. सेंटीमेंट, स्नेह सब सेकेंडरी हो जाती है.

वस्तुतः सबकुछ पा लेने, खुद को सेक्योर कर लेने की अंधी चाहत हमे ऎसे मोड़ पर ला खड़ा करती है, जहां सबकुछ होते हुए भी हमारे पास बहुत कुछ नहीं होता है.जब तक हमें इसका एहसास होता है परिस्थितियां बदल चुकी होती है. हमारे चाहने वाले एक माइंडसेट तैयार कर लेते हैं कि हमारा लाइफ स्टाइल ही यही है. और जब हमें जरूरत होती है स्नेह, प्रेम, वात्सल्य की तो हमारे चारों ओर सिवाय निर्वात के कुछ नहीं मिलता. ज़िंदगी जीने के लिये हमें सामंजस्य बिठाने की कला सीखनी होगी. हमे फर्क करना सीखना होगा समझौते और सामंजस्य में।

Wednesday, April 6, 2011

बिहार दिवस अथ इमेज बिल्डिंग की क़वायद


बिहार दिवस के दौरान ऐसा ताना-बाना बुना गया मानो बिहार का कायाकल्प हो गया। अकेले पटना में करोड़ों रूपये खर्च कर भव्य आयोजन किया गया। हर जिले को तकरीबन तीन लाख की राशि बिहार से आयोजन पर खर्च करने को दिये गए।

राज्य प्रायोजित इस आयोजन से आम आदमी का हित सधता कहीं नहीं दिखा। यह महज़ एक प्रशासनिक कार्यक्रम भर रहा। पूरे तीन दिनों के इस भव्य आयोजन में सरकार अपनी पीठ खुद थपथपाती रही। बिहार दिवस यानि बिहार विज्ञापन के इस मौके़ पर देश के कई हिस्सों से कलाकारों के साथ-साथ राजनेताओं को भी आमंत्रित किया गया। लेकिन सत्ता के मद में चूर नीतीश प्रोटोकॉल भी भूल गए। विपक्ष का एक अदना विधायक भी इस कार्यक्रम में कहीं शरीक नहीं हुआ।
कोई शक नहीं कि विकास नहीं हुआ है। लालू-राबड़ी राज की अपेक्षा बदलाव जरूर नज़र आते हैं। चिकनी-चुपड़ी सड़कें और साइकिल से बच्चियों का स्कूल जाना बड़ी ही आसानी से दिख जाता है। अपनी जीडीपी ग्रोथ रेट को लेकर सुशासन बाबू तो वाहवाही पहले ही बटोर चुके हैं लेकिन सच्चाई कुछ और भी है। जीडीपी के बढ़ने के बाद भी बिहार के मानव विकास सूचकांक में कोई खास अंतर नहीं आया है। आज भी बिहार की 70 प्रतिशत आबादी 20 रूपये रोजाना पर जीने को विवश है।

तीन दिवसीय इस आयोजन में करोड़ों खर्च किये गये लेकिन सरकार ने एक बार भी उन विभागों के बारे में नहीं सोचा जिन्हें पिछले 5-6 महीनों से वेतन नहीं दिया गया। यह बिहार दिवस का आयोजन सरकारी अस्पताल और स्कूलों के कर्मचारियों के जले पर नमक लगाने जैसा था। इन कर्मियों को पिछले 6-7 महीनों से वेतन नसीब नहीं हुआ है।
बिहार विकास की पटरी पर सरपट दौड़ रही है। ऐसा सरकार कहती है और इसे और बेहतर तरीके से परोसती है बिहारी मीडिया। बिहार की पूरी मीडिया इस पत्रकारिता में लगी हुई है। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि बिहार के सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। लेकिन पिछले साल एक गै़रसरकारी संस्था ‘असर’ ने रिपोर्ट जारी किया कि बिहार के स्कूलों में ऐसे बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है, जो पढ़ते तो हैं पांचवी में परन्तु उन्हें दूसरी कक्षा की भी पूरी जानकारी नहीं है।

बिहार को विकसित बनाने का सपना और उसके लिए प्रयासरत हमारे मुख्यमंत्री आये दिन केन्द्र पर आरोप लगाते रहते हैं। पिछले कुछ दिनों से सूबे में बिजली की संकट भी चली आ रही है। बिहार दिवस के दौरान पूरे सूबे से बिजली की कटौती कर पटना के गांधी मैदान को जगमगाया जा रहा था। इन तीन दिनों के दौरान भागलपुर, कटिहार, नवादा और शेखपुरा में लोगों ने बिजली को लेकर जमकर हंगामा किया और आगजनी की घटना को अंजाम दिया। कई जिले तो 24-24 घंटों तक बिजली से महरूम रहा।
इधर बिहार दिवस के समापन पर नवादा जिले में वहां के वरिष्ठ पदाधिकारियों ने बार-बालाओं के नृत्य भी सरकारी खर्चे पर करवाये। यह मामला विधान सभा तक भी पहुंचा और हंगामा हुआ।

बिहार दिवस के आयोजन को नीतीश सरकार ने राजग गठबंधन के प्रचार का मंच बना दिया। विकास हुआ है इसमें दो मत नहीं, लेकिन इसका प्रचार इतना अधिक किया गया कि जिससे जनता को भी यह भ्रम हो जाए कि बिहार सही में एक विकसीत राज्य बन रहा है। लेकिन शायद सरकार यह भूल गई कि भूखी जनता को समारोह नहीं बल्कि रोटी चाहिए।

देखा-सुनी