Wednesday, January 20, 2010

बेरहम रहनुमा और बेघर लोग

सुबह-सुबह खबर पढने को मिली कि दिल्ली के अलग-अलग “रैन-बसेरों” में आठ से दस लोगों की मौत हो गयी है ।
दिल्ली को विश्वस्तरीय बनाने की होड़ में सरकार बिल्कुल संवेदनहीन हो गयी है । आम लोगों की तो छोड़िये बेघर लोगों के बारे में भी नहीं सोचा जा रहा है । लगातार “रैन-बसेरों” की संख्या घटाई जा रही है । पिछ्ले साल के मुकाबले इसकी संख्या ४६ से घट कर २४ हो गयी है । एक अनुमान के मुताबिक शहर में दस हज़ार बेघर महिलायें हैं और इन सब के लिये है एक “रैन-बसेरा” ।
इन तमाम बातों पर माथा-पच्ची के बाद स्वभावतः थोड़ी देर व्यवस्था को कोसा फ़िर मैं व्यस्त हो गया अपने दैनिक क्रिया-कलाप में ।
चुंकी इनदिनों कुछ खास काम-धाम है नहीं तो थोड़े पठन-पाठन के बाद अधिकतर समय स्वप्नलोक मे ही विचरता रहता हुं ।
एक-दो गर्म कपड़े पहन रखा था, ठंढ से बिल्कुल महफ़ुज होने के लिये उपर से रजाई भी डाल रखी थी । मेरी रजाई चार साल पुरानी है सो दिखने मे थोड़ी बिमार लगती है । लेटे-लेटे मन ही मन सोच रहा था कि काश फर वाला कम्बल होता तो ठंड मे सोने का आनंद ही दोगुना हो जाता ।
यह सब सोच ही रहा था कि अचानक क्रांति की देवी सर पर सवार हो गयी । सोचने लगा कि अमा यार अपने पास तो किराये की चारदिवारी और छत है, एक रजाई है, एक मोटा गद्दा है अब क्या चहिये । सोचने लगा कि आखिर वो कैसे रहते होंगे जिनके तन पर न तो पर्याप्त कपड़े हैं और न ही सर पर छत है । सोच-सोच कर मन व्यथित हुआ ही जा रहा था कि अचानक मेरी सोच निर्णय में तब्दील होने लगी ।
मैं उठ खड़ा हुआ और अपने पुराने कपड़े निकालने लगा । एक स्वेटर, एक-दो गर्म कपड़े, कुछ पैंट-शर्ट सभी को निकालकर पौलिथीन में रख लिया । शाम हो चली थी सोचा अब रात के भोजन के बाद ही कुछ किया जायेगा । खाना बनाते-खाते रात के १२ बज चुके थे । मुझे लगा कि चीजों को देखने-समझने का यही सही समय है । मेरे मिशन मे मेरा एक मित्र राहुल भी सहभागी बन गया ।
कमरे से निकलने के थोड़ी ही देर बाद ठंड अपने होने का एहसास दिला रही थी । शुक्र था कि उधार में ली हुई गोल्ड फ्लैग की डिबिया मेरे साथ थी जो कभी-कभी मुझे राहत दे रही थी ।
मुनिरका होते हुए आर.के.पुरम से हयात तक सब कुछ व्यवस्थित लगा । सड़क पर इक्की-दुक्की गाड़ी आ-जा रही थी, कभी-कभी पी.सी.आर भैन दिख जाती थी । फुटपाथ पर लोग तो क्या कुत्ते भी नज़र नही आ रहे थे । हयात के करीब पहुंचते-पहुंचते वाकई दिल्ली विश्व्स्तरीय लगने लगी थी । वहां से हमलोग आगे बढे वीकाजीकामा के पास से लोग युं ही खुले मे सोते हुए मिलने लगे । हमदोनों कपड़े निकाल कर सोये हुए लोगों के बगल में रख कर आगे बढ गये । जैसे-जैसे आगे बढ रहे थे स्थिती और भी दयनीय होती जा रही थी । सफ़दरजंग आते-आते हमदोनो भी कांपने लगे थे । परन्तु लोगों की स्थिती देख हमलोग अवाक से हो गये थे ।
कोइ सब-वे की सीढियों पर सोया हुआ था तो कोई अपने रिक्शे पर ही रात गुजारने की असफल कोशिश मे लगा हुआ था । कुछ तो ऐसे ही खुले मे सो रहे थे, मैं सोच रहा था कि कहीं कोइ बी.एम.डब्ल्यु टल्ली होकर आया तो गये ये लोग काम से ।
कुछ देर पहले मेरे छोटे भाई का भी फोन आ चुका था । उसे मेरे नेक कदम की जानकारी मिल चुकी थी । मुझपे झल्लाते हुए उसने फोन रख दिया और माँ-बाबु जी को मेरे नेक कदम की सूचना दे दी । बाबु जी परेशान, उनका फोन आया और साथ में ढेर सारी नसीहतें । उन्हें समझा-बुझा कर मैने फोन रख दिया और आगे की ओर मार्च किया ।
मुझे लगा कि यार मैं ठंड मे बाहर हुं तो दिल्ली से लेकर बेगुसराई(बिहार) तक लोग परेशान हो गये हैं । और एक ये लोग हैं दिल्ली तो क्या इनका नगर-निगम भी इनके बारे में नहीं सोच रहा है ।
एम्स के पास कुछ और लोग ठिठुरते हुए रात काटते मिले । एक ही कम्बल को ओढ़ भी रखा था और बिछा भी रखा था । कुछ लोगों के साथ तो कुत्ते भी सो रहे थे, सड़क के ये आवारा कुत्ते उनलोगों के हमदर्द दिख रहे थे ।
हमे कुछ समझ में नहीं आ रहा था । हमलोग कुछ कर पाने की स्थिती में भी नहीं थे ।
अब हमलोग एम्स से आगे बढ रहे थे । जैसे-जैसे साउथ-एक्स के करीब होते जा रहे थे, दिल्ली समृद्ध दिखने लगी थी । कुछ भी लावारिस की तरह इधर-उधर नहीं, सबकुछ व्यवस्थित ।
फिर वहाँ से हमलोग मन मसोसते, सरकार को कोसते घर पहुंचे ।
अब हमलोग दोस्तों के पास से उनके पुराने कपड़े जमा कर रहे हैं । फिर किसी दिन क्रांति की देवी सर पर सवार हुई तो चल पड़ेंगे उन बेघर लोगों से मिलने ।

नोट :- इसे आप www.mediakhabar.com पर भी पढ सकते हैं ।

Wednesday, January 13, 2010

मेरे हमउम्र हैं वो बच्चे नहीं हैं

रिवाज दुनिया के सारे अच्छे नहीं है
चेहरे भोले होंगे दिल के सच्चे नहीं हैं

जब जी में आये को आ कर तोड़ दे
रिश्तों के घरौंदे मेरे कच्चे नहीं हैं

कुछ बात मुहब्बत के राज़ ही रखना
दोस्त मेरे सभी अच्छे नहीं हैं

मासूमियत गलतियों में कैसे होगी सागर
मेरे हमउम्र हैं वो बच्चे नहीं हैं

देखा-सुनी