मांग को लेकर शिक्षकों का शांतिपूर्ण प्रदर्शन |
Saturday, May 19, 2012
सत्यानाश होती शिक्षा व्यस्था
Sunday, March 25, 2012
नीतीश हैं अखबारों के अघोषित संपादक
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर मीडिया को नाथने और साधने का आरोप लगता रहा है. अभी दो-चार दिन पहले और पूर्व में ऐसी कई घटनायें और वाकये भी हुए हैं जो इस आरोप को पुष्ट करते हैं.
वर्षों से जदयू के कोषाध्यक्ष रहे बिनय कुमार सिन्हा के घर आयकर विभाग का छापा. बिनय कुमार सिन्हा 1994 से जदयू के कोषाध्यक्ष हैं, आयकर विभाग ने घर सहित इनके कई ठिकानों पर छापेमारी की, जिसमें आयकर विभाग को बोरे में बंद साढे़ चार करोड़ रूपये मिले. जानकार बताते हैं कि श्री सिन्हा नीतीश के सबसे करीबी व्यक्ति हैं और मुख्यमंत्री बनने से पहले तक इन्हीं के मकान में किराये पर रहा करते थे. एक अणे मार्ग में शिफ्ट करने से पहले तक मुख्यमंत्री का कारकेड बिनय कुमार के घर ही जाया करता था. लेकिन इतने महत्वपूर्ण खबर को अधिकांश अखबारों ने जगह ही नहीं दी. सूबे के एक प्रतिष्ठित अखबार ने इसे लगाया तो सही लेकिन उस अखबार ने ये बताना जरूरी नहीं समझा कि बिनय कुमार जदयू के कोषाध्यक्ष हैं.
थोड़े दिन पहले का मामला है. जनता दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम के दौरान जब नीतीश कुमार प्रेस को संबोधित कर रहे थे, तो एक युवा पत्रकार ने पूछा था कि ’सर क्या बात है लोगों में नाराजगी बढ रही है, वे सड़कों पर उतरने लगे हैं’. इतना सुनते ही मुख्यमंत्री भड़क गये और उस पत्रकार की वहां काफी फजीहत भी हुई. इसी तरह की एक घटना सुबे के बेगुसराय जिले की है. उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को एक कार्यक्रम में शिरकत करने अपने समय से काफी लेट पहुंचे. कुछ पत्रकार उनका इंतजार करते-करते चले गये. यह जानने पर कि पत्रकार चले गये उप-मुख्यमंत्री ने कहा कि नौकरी करनी है तो हमारा इंतजार तो करना पड़ेगा.
मीडिया पर लगे अघोषित प्रतिबंध की चर्चा तो सुबे में दबे जुबान होती ही रहती थी. लेकिन इसे और बल मिला पिछले दिनों प्रेस कॉंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष न्यायमुर्ती काटजू के दिये बयानो से. न्यायमुर्ती काटजू पिछले दिनों बिहार में थे. पटना विश्वविधालय के द्वारा एक व्याख्यान का आयोजन किया गया था. आयोजन के दौरान प्रेस कॉंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के अवकाश प्राप्त न्यायधीश मार्कंडे काटजू ने बिहार सरकार को कबीर दास के दोहे “निंदक नियरे राखिये” की याद दिलाई. और प्रेस स्वतंत्रता के मामले में लालू के शासन काल को नीतीश के शासन काल से बेहतर बताया. न्यायमूर्ति काटजू ने कहा कि नीतीश के शासन में लॉ एंड ऑर्डर की स्थिती तो अच्छी है लेकिन मौजूदा सरकार में फ्रीडम ऑफ प्रेस नहीं है, जबकि लालू के समय में थी. उनके इतना कहने पर पटना कॉलेज के प्रिंसिपल लालकेश्वर प्रसाद आग-बबूला हो गये और मंच के नीचे से ही चिल्लाने लगे. यह जानना यहां आवश्यक है कि लालकेश्वर प्रसाद की पत्नी जदयू कोटे से विधायक हैं. और न्यायमूर्ती के खिलाफ सूबे के उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और शिवानंद तिवारी जिस तरह अपनी खीझ निकाल रहे थे उसे बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका अपमानजनक मानता है. लेकिन नीतीश इस मुद्दे पर अब तक मौन ही साधे हुए हैं.
ऐसी कई घटनाऎं हैं, जिसे सत्ता के दबाव में अखबारों ने उचित कवरेज नहीं दिया. या बड़े जन समुदाय को प्रभावित करने वाली खबरों, राज्य स्तरीय खबरों को अंदर के पन्नों पे बिना पर्याप्त कवरेज के प्रकाशित की गई. एक ऐसा ही मामला है जिसे जो आज तक मुख्यधारा की मीडिया की खबर नहीं बनी.
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का पटना के आर्यकुमार रोड (मछुआटोली) स्थित मकान का कुछ भाग बिहार के उप-मुख्य मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री सुशील कुमार मोदी के नजदीकी रिश्तेदार श्री महेश मोदी ने “जबरन कब्ज़ा कर रखा है और उसमें दुकान चला रहे हैं.
राष्ट्रकवि की अस्सी-वर्षीया पुत्र-वधू हेमंत देवी के मुताबिक, “मकान के एक भाग में स्थित दुकान को सुशील कुमार मोदी के चचेरे भाई श्री महेश मोदी ने मासिक किराए पर लिया था। वर्षों बीतने के पश्चात जब खाली करने की बात आई तो वे यह कह कर धमकाने लगे कि उनके भाई बिहार के उप-मुख्य मंत्री हैं. इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि दिनकर के पोते श्री अरविंद कुमार सिंह अपनी समस्या से लिखित रूप से प्रधानमंत्री तक को अवगत करा चुके हैं. उन्होंने इस संबंध में सूबे के मुखिया नीतीश कुमार से भी मुलाकात की. लेकिन न्याय के साथ विकास का दावा करने वाले मुख्यमंत्री दिनकर के परिजनों को अब तक न्याय नहीं दिला सके हैं. इकरारनामे के अनुसार, पिछले ३० अप्रैल २०११ को खाली कर देनी थी.
यह अकेली घटना नहीं है जिसे सत्ता पक्ष के दबाव में उचित कवरेज नहीं मिला. अभी हाल ही में सूबे के मंत्री प्रेम कुमार के साले ने गया जिले में जीआरपी के एक आरक्षी के उपर गोली चला दी. मामला यह था कि मंत्री का साला बबलू आरक्षी किशोरी रजक की पत्नी के साथ बहुत दिनों से छेड़-छाड़ कर रहा था. पटना में पदस्थापित आरक्षी जब अपने घर गया तो उसे इसकी जानकारी मिली, और उसने इसका विरोध किया. विरोध का अंजाम यह हुआ कि उस पर गोली चली और बबलू के गुर्गों ने उसके साथ मारपीट भी की. सत्ता का दबदबा कितना है यह इस बात से ही जाहिर होता है कि जब इस संदर्भ में गया के सीनियर एस.पी से बात की गई तो उन्होंने साफ कहा कि हम इस केस के बारे में जानते ही नहीं है, हमारे पास बहुत सारे केस हैं. यह ज्वलंत मामला भी राज्यस्तर की खबर नहीं बन पाई.
बिहार में मीडिया की स्वतंत्रता बाधित की जा रही है या नहीं इसका प्रमाण पिछले दिनों हुए आयोजन से लगाया जा सकता है. पटना के बरिष्ठ पत्रकारों के द्वारा “बिहार में पत्रकारिता: विश्वसनीयता का संकट” विषय पर एक गोष्ठी गांधी संग्रहालय में की गई. वहां मौजूद सारे पत्रकार यह मान रहे थे कि मौजूदा सरकार मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी है, वजह मोटी रकम के रूप में दिया जाने वाला विज्ञापन हो या कुछ और. गोष्ठी के दौरान बरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर ने कहा कि राज्य में पत्रकारिता को संरक्षित रखने के लिये पूरे पत्रकार जमात को प्रेस बिल वाली एकजुटता का परिचय देना होगा.
जदयू के निलंबित राज्यसभा सांसद उपेंद्र कुशवाहा ने मारकंडेय काटजू के बयान को बिहार में प्रेस पर अंकुश के आरोपों की पुष्टि बताया है. उन्होंने कहा कि बिहार में सरकार क्या कर रही है, यह प्रेस काउंसिल ने स्पष्ट कर दिया है. वहीं “नंदीग्राम डायरी” के लेखक और जनांदोलनों के पत्रकार पुष्पराज कहते हैं, ’बिहार के सारे अखबार सत्तापरस्त हो गये हैं. और स्टेट के स्पोक्स पर्सन की भुमिका निभाने में लगे हुए हैं. और जिस तरह से न्यायमूर्ती काटजू बोलने से रोकने की कोशिश की गई, वह न्यायमूर्ती काटजू का अपमान तो है ही, बिहार के लिये भी शर्मनाक है’.
फिलहाल प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने तीन सदस्यीय टीम(राजीव रंजन नाग, अरुण कुमार और कल्याण बरुआ) का गठन कर दिया जो बिहार आकर इस बात की जांच करेगी.
बताते चलें कि फारविसगंज-भजनपुर गोलीकांड के बाद अखबारों की भुमिका से नाराज “बिहार मीडिया वॉच” ने 05/07/11 को ही प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को एक पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि पटना से प्रकाशित प्रमुख हिंदी अखबारों की जनविरोधी और सत्तापरस्त भूमिका की जांच हो।
कार्टून: पवन
Thursday, February 16, 2012
आम जन की अनदेखी
बीते जनवरी को देश की प्रख्यात समाज सेविका मेधा पाटेकर बिहार में थीं. लोकशक्ति अभियान के तहत बिहार पहुंची मेधा, कई जिलों का दौरा करने के बाद, 27 जनवरी को राजधानी पटना में उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश के सुशासन और विकास के मॉडल की जमकर आलोचना की.
लोगों का कहना है कि नीतीश जन-आंदोलनों के नेताओं से मिलना पसंद ही नहीं करते हैं. और इस बार भी जब राज्य के आम लोगों की रोजी-रोटी और जमीन के मुद्दे को लेकर मेधा ने उनसे समय मांगा तो उन्होंने मिलना उचित नहीं समझा. उनके प्रधान सचिव के द्वारा, थोड़े-थोड़े समय के अंतराल पे वजह, व्यस्तता और बिमारी दोनों बताई गई. तबियत का नासाज होना और व्यस्त भी होना, अपने आप में हास्यास्पद है. मेधा कहती हैं कि इस सुशासन की सरकार के पास आम जनता के लिये समय नहीं है. नीतीश के वादे और सच्चाई में छेद है. वो आगे कहती हैं कि नीतीश स्मृति को टटोलें, वो खुद जन-आंदोलन से निकले हुए नेता हैं.
मेधा के बिहार दौरे से इतनी बात तो निकल कर सामने आई कि, अतीत में हुई कुछ घटनाओं के पीड़ितों को आज भी न्याय नहीं मिला है. और सरकार के कुछ निर्णय ऐसे हैं जो जबरन आम नागरिकों पर थोपे जा रहे हैं.
नीतीश के विभिन्न दौरों और यात्राओं के दौरान जब आम नागरिक या यूं कहें की पीड़ित-प्रताड़ित, वंचित नागरिक उनसे मिलना चाहते हैं, तो उन्हें मिलने नहीं दिया जाता है. उनकी समस्याओं को सुना नहीं जाता है.
मुख्यमंत्री के आस-पास के आला-अधिकारी-अर्दली उन्हें सबकुछ हरा-हरा दिखाना चाहते हैं, या स्वंय मुख्यमंत्री का ऐसा निर्देश है ? यह तो बहस का विषय है.
फारविसगंज-भजनपुर गोलीकांड के पीड़ितों को अब तक न्याय नहीं मिला है. पिछले साल जून में हुई इस घटना में मुस्लिम समुदाय के चार लोग मारे गये थे. मारे जाने वालों में एक औरत और एक बच्ची भी शामिल है. बिहार पुलिस का क्रूरतम चेहरा, मात्र दो मिनट के फूटेज के द्वारा ही पूरी दुनिया ने देखा था.
राजग सरकार ने मामले की जांच के लिये न्यायिक जांच आयोग का गठन किया था. आयोग को 22 दिसंबर 2011 तक जांच रिपोर्ट देनी थी. छह महीने बीत जाने के बाद भी आयोग ने कोई अंतरिम रिपोर्ट तक जारी नहीं की है. विपक्षी दलों के द्वारा जब यह मामला उठाया जाने लगा तब आयोग के कार्यकाल को 31 दिसंबर 2012 तक के लिये बढा दिया गया.
इससे पहले मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की टीम भजनपुर का दौरा कर चुकी है. अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्ला ने रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद, अल्पसंखयक मामलों के मंत्री सलमान खुर्शीद को एक पत्र भी लिखा. पत्र में हबीबुल्ला ने कहा है कि घटना के बाद राज्य में अल्पसंख्यकों का विश्वास हिल गया है. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में विश्वास बहाली के लिये कई सिफारिशें भी सुझाई थी.
फारविसगंज के अपने दौरे के दौरान मेधा ने कहा कि सरकार जल्द से जल्द सुझाये गये सिफारिशों को लागू करवाये. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ती जाहिर की कि अररिया पुलिस प्रशासन के द्वारा तीन हजार लोगों को अज्ञात आरोपी बनाया गया है, वहीं राज्य सरकार द्वारा, गोली चलवाने वाली एस.पी गरिमा मल्लिक को पदोन्नती दी जाती है.
कोशी के क्षेत्र में भी अलग-अलग मुद्दों को लेकर लोगों में आक्रोश पनपता दिख रहा है. 2008 की त्रासदी से विस्थापित लोगों का साढ़े तीन साल बीत जाने के बाद भी ढ़ंग से पुनर्वास नहीं हुआ है. आज भी विस्थापितों के हज़ारों हेक्टेयर खेतों पर रेत फैले हुए हैं. और लोग बांधों पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. आज भी 380 गांवों की दस लाख आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास की बाट जोह रही है. पहली बार पुनर्वास के नाम पर 12,084 परिवारों को तटबंध के बाहर बसाने के लिये भुमी आवंटित की गई. मगर विस्थापितों के मुकाबले जमीन कम पड़ गई और कई गांव के लोगों को तटबंध के भीतर ही रहना पड़ा. सरकार के द्वारा कहा गया था कि विस्थापित परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जायेगी. स्थानीय निवासी हुसैन कहते हैं जो सरकार घर नहीं दे सकी, वो नौकरी क्या देगी.
स्थानीय लोगों के लाख विरोधों के बावजूद कोसी महासेतु बनकर तैयार हुआ और उसका भव्य उद्घाटन भी हुआ. कोसी रेल महासेतु और एन.एच 57 के निर्माण को लेकर 100 गांवों की 75 हज़ार आबादी विस्थापित हो चुकी है. इतनी बड़ी आबादी उचित मुआवजे और पुनर्वास के बगैर तटबंधों पर शरण लेने या इधर-उधर भटकने को मजबूर हैं. कोसी महासेतु पीड़ित संघर्ष समीति के अध्यक्ष सत्यनारायण प्रसाद कहते हैं कि हम उद्घाटन के दिन केंद्रिय मंत्री सी.पी जोशी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गांधीवादी तरीके से विरोध कर रहे थे. हम उन्हें काला झंडा दिखा रहे थे. लेकिन प्रशासन ने हमें कार्यक्रम स्थल तक जाने ही नही दिया. बीच में ही एक स्थानीय ग्रामीण बोल पड़ते हैं, कहते हैं कि हमारे विरोध प्रदर्शन की खबरों को तो किसी अखबार ने छापा तक नहीं. यह कैसा प्रतिबंध लगाया जा रहा है हमलोगों पर.
सूबे के मुजफ्फरपुर जिले के मड़बन में एसबेस्टस फैक्ट्री का निर्माण चल रहा था. स्थानीय लोगों को जैसे ही इसकी भनक लगती है कि एस्बेसटस कैंसर कारक होती है, लोगों ने इस निर्माण का विरोध करना शुरु कर दिया. विरोध करने के दौरान कई लोग(महिला और पुरुष दोनो) पुलिस की लाठियों से घायल भी हुए. विरोध के बाद अंततः फैक्ट्री का निर्माण बंद हो गया. लेकिन आज भी वहां के 15-16 किसानों पर मुकदमे चल ही रहे हैं. इसी तरह बीते अक्टूबर माह को कांटी चौक पर चल रहे धरने को भी स्थानीय प्रशासन ने कुचलने का प्रयास किया. कांटी थर्मल निर्माण के समय ही सरकार के द्वारा कहा गया था कि, फैक्ट्री के पांच किलोमीटर के दायरे में चौबीस घंटे बिजली मुहैया कराई जायेगी. बिजली और मजदूरों के मांगों को लेकर स्थानीय लोग धरना पर बैठे हुए थे. शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे धरने को खत्म करने के लिये प्रशासन ने बने मंच को ढाह दिया. अगले दिन इससे आक्रोशित लोग सड़क पर उतर आये. प्रशासन ने जब इन लोगों पर लाठियां चलवाईं, तब जाकर लोगों ने प्रशासन की गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया. धरने में शामिल कई लोगों पर आज भी मुकदमें चल रहे हैं. एस.यू.सी.आई के अरुण कुमार कहते हैं सरकार और प्रशासन कोई भी विरोध को देखना पसंद नहीं करते हैं, भले ही वो शांतिपूर्ण क्युं न हो. कमिश्नर नें जांच का आदेश एस.पी और डी.एम को दिया है, जो कि खुद दोषी हैं. ऐसे में न्याय की उम्मीद कहां बचती है. यह तो दुर्भाग्य है कि हम अपने हक के लिये आवाज भी बुलंद नहीं कर सकते हैं.
अगर सरकार नहीं चेतती है तो देर-सबेर सुबे के बेगुसराई जिले में भी उसे आम जन के ऐसे ही आक्रोश का सामना करना पड़ेगा. बिहार राज्य विद्युत बोर्ड, बरौनी ताप विद्युत संयंत्र के बिस्तारीकरण की योजना पर अमल कर रही है. इसके लिये 3666 करोड़ रूपये की योजना भी स्विकृत कर ली गई है. विस्तारीकरण के तहत एश पॉण्ड(छाई निस्तारण) के लिये 565 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. रामदीरी गांव के चार पंचायतों से लगभग 700 एकड़ जमीन को अधिग्रहण किये जाने की योजना है. रामदीरी गांव के लोगों के जीविका का मुख्य उपाय खेती-किसानी ही है. अपने उपजाऊ खेत को गांव के लोग, सरकार को देना नहीं चाहते हैं. इस मामले को लेकर ग्रामीणों में काफी आक्रोश भी देखा जा रहा है. स्थानीय किसान कुंदन सिंह कहते हैं कि मुझे समझ नहीं आता है कि सरकार को विकास के लिये खेतिहर /उपजाऊ जमीन ही क्यों चाहिये? हमारा और हमारे ग्रामीणों की आजीविका ही इसी खेतों से चलती हैं. हम जान दे देंगे लेकिन जमीन नहीं देंगे.
इन तमाम मुद्दों पर नंदीग्राम डायरी के लेखक और जन-आंदोलनों के पत्रकार पुष्पराज कहते हैं कि नीतीश कुमार एक असंवेदनशील मुख्यमंत्री हैं. श्री कुमार आम नागरिकों के प्रति जिम्मेवार हैं ही नहीं. ये जिम्मेवार हैं उनके लिये जो शासक हैं, सत्ता में हैं या ब्युरोक्रेट्स हैं.
सूबे की सरकार और आम जनता के बीच फासला बढ़ता जा रहा है. न्याय के साथ विकास की बात करने वाली सरकार को फिलहाल आत्मचिंतन की जरूरत है.