
भाजपा और विवाद में चोली-दामन का सम्बन्ध है | यह इसकी जन्मजात समस्या है जो इसके साथ बनी रहेगी | अगर भारत की राजनैतिक पार्टियों पर नज़र डालें तो यही पता चलता है कि राजनैतिक पार्टियां पहले अस्तित्व में आतीं हैं फिर ये अपने संगठनों का निर्माण करती हैं | परन्तु भाजपा के सन्दर्भ में उल्टा है | संघ ने अपने राजनैतिक सरोकारों को पूरा करने के लिए भारतीय जनता पार्टी का गठन किया |
भारतीय जनता पार्टी संघ की इतनी ऋणी है कि यह कभी भी स्वतंत्र रूप से साँस ही नहीं ले पायी है | पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपयी यदा-कदा अपने स्वतंत्र तेवर दिखाने के प्रयास जरूर किये परन्तु उन्हें भी अंततः संघम शरणम् होना ही पडा |
भाजपा बड़ी ही इमानदारी से इस बात को स्वीकार करता है कि तीन सांसदों (१९५२) से शुरू होने वाली इस पार्टी के पास अगर ११६ (२००९) हैं तो वो संघ के बदौलत ही | परन्तु इतनी ही इमानदारी से इसे य
ह भी स्वीकार करना होगा कि अब भारतीय जनता को हिन्दुत्व की परिभाषा और विचारधारा स्वीकार्य नहीं

है |
भाजपा का कोई न कोई बड़ा नेता अक्सर और बेवजह इस बात का उद्घोष करता रहता है कि संघ ही उसका प्रमुख है और संघ की विचारधारा ही उसकी विचारधारा है | और दूसरी ही साँस में यह भी कहता नज़र आता है कि हिंदुत्व की अवधारणा को इक्कीसवीं सदी के अनुसार व्याख्यायित किया जाय | इस उद्घो
ष के साथ भाजपा का आत्मसंशय और अपराधबोध साफ़ झलकता है |
अगर हाल के मुद्दों पर गौर करें तो इतना ही प्रतीत होता है कि इसका हर निर्णय
बौखला और बौरा कर लिया गया है | भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की निर्णय क्षमता में ही दोष है, और इस बात से किनारा नहीं किया जा सकता है |
उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाना कहाँ तक जायज था, जबकी राजनीति में उन्हें आये दो दशक भी नहीं हुए हैं | | और फिर हार की जिम्मेदारी
उनपर थोपते हुए निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया जाना, सब केन्द्रीय नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप | अगर वहां के कार्यकर्ता और आम जनता के नब्ज टटोली जाय तो आज भी भगत सिंह कोशयारी वहां के सबसे स्वीकार्य नेता हैं |
बसुन्धरा को बिपक्ष के
नेता पद से हटाने की कवायद, यह जानते हुए कि विधायकों का एक बड़ा कुनबा उनके साथ है, हास्यास्पद निर्णय ही लगता है |
अगर हार की जिम्मेवारी लेने और थोपने का इतना ही शौक है, तो शीर्ष नेतृत्व पार्टी की कमान नए चेहरों को क्यूँ नहीं सौंप रही है |
जसवंत सिंह जै
से बरिष्ठ

नेता का निकाला जाना, इसी बात को इंगित करता है कि फिलहाल भाजपा मानसिक रूप से अस्वस्थ चल रही है |
लगभग सात सौ पन्नो की उनकी किताब को किसी ने ढंग से पढा भी नहीं होगा और उन्हें निष्कासित कर दिया गया | जसवंत सिंह को इस तरह से दुत्कारा गया कि पार्टी में एक के बाद एक बड़े ने
ता बगावती बिगुल फूँक रहे हैं |
जसवंत सिंह ने ऐसा कुछ न
हीं कहा जो कि पहले जिन्ना के बारे में न कहा गया हो | सालों पहले डा० अजीत जावेद द्बारा लिखित पुस्तक "जिन्ना की त्रासदी" में इन सब बातों का उल्लेख है | आखिर सच को स्वीकारने में भाजपा को इतनी परेशानी क्यूँ हो रही है |

पहले तो भाजपा खुद तय करे की उसकी विचारधारा क्या है | इस बात को लेकर आम जनता ही नहीं पार्टी के नेताओं में भी संसय बना हुआ है |
पद की लोलुपता को छोड़ कर शीर्ष नेता अब कांग्रेस का विकल्प बनने की सोचे | और यह तभी संभव है जब भाजपा में संघी और गैर संघी के बीच की खाई को पाटा जाय |