Saturday, August 29, 2009

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे है

लोग-बाग़ चिल्लाने लगे है
उंगलियाँ उठाने लगे हैं

हक जबसे जताने लगे हैं
नक्सली कहलाने लगे हैं

कुछ मुसहर मेरे गाँव के
हाथ-पाँव फैलाने लगे हैं

मंदिर बना तकते थे दूर से
अब वो भी हवन कराने लगे हैं

बाबुओं की नींद उचट गयी
इंसानियत अब बताने लगे हैं

शोषित थे जो सदियों से सागर
ख्वाब वो अब सजाने लगे हैं

Friday, August 28, 2009

अंतरकलह और भाजपा


भाजपा और विवाद में चोली-दामन का सम्बन्ध है | यह इसकी जन्मजात समस्या है जो इसके साथ बनी रहेगी | अगर भारत की राजनैतिक पार्टियों पर नज़र डालें तो यही पता चलता है कि राजनैतिक पार्टियां पहले अस्तित्व में आतीं हैं फिर ये अपने संगठनों का निर्माण करती हैं | परन्तु भाजपा के सन्दर्भ में उल्टा है | संघ ने अपने राजनैतिक सरोकारों को पूरा करने के लिए भारतीय जनता पार्टी का गठन किया |
भारतीय जनता पार्टी संघ की इतनी ऋणी है कि यह कभी भी स्वतंत्र रूप से साँस ही नहीं ले पायी है | पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपयी यदा-कदा अपने स्वतंत्र तेवर दिखाने के प्रयास जरूर किये परन्तु उन्हें भी अंततः संघम शरणम् होना ही पडा |
भाजपा बड़ी ही इमानदारी से इस बात को स्वीकार करता है कि तीन सांसदों (१९५२) से शुरू होने वाली इस पार्टी के पास अगर ११६ (२००९) हैं तो वो संघ के बदौलत ही | परन्तु इतनी ही इमानदारी से इसे य भी स्वीकार करना होगा कि अब भारतीय जनता को हिन्दुत्व की परिभाषा और विचारधारा स्वीकार्य नहीं है |
भाजपा का कोई न कोई बड़ा नेता अक्सर और बेवजह इस बात का उद्घोष करता रहता है कि संघ ही उसका प्रमुख है और संघ की विचारधारा ही उसकी विचारधारा है | और दूसरी ही साँस में यह भी कहता नज़र आता है कि हिंदुत्व की अवधारणा को इक्कीसवीं सदी के अनुसार व्याख्यायित किया जाय | इस उद्घो के साथ भाजपा का आत्मसंशय और अपराधबोध साफ़ झलकता है |
अगर हाल के मुद्दों पर गौर करें तो इतना ही प्रतीत होता है कि इसका हर निर्णय बौखला और बौरा कर लिया गया है | भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की निर्णय क्षमता में ही दोष है, और इस बात से किनारा नहीं किया जा सकता है |
उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूरी को मुख्यमंत्री बनाना कहाँ तक जायज था, जबकी राजनीति में उन्हें आये दो दशक भी नहीं हुए हैं | | और फिर हार की जिम्मेदारी उनपर थोपते हुए निशंक को मुख्यमंत्री बना दिया जाना, सब केन्द्रीय नेतृत्व की इच्छा के अनुरूप | अगर वहां के कार्यकर्ता और आम जनता के नब्ज टटोली जाय तो आज भी भगत सिंह कोशयारी वहां के सबसे स्वीकार्य नेता हैं |
बसुन्धरा को बिपक्ष के नेता पद से हटाने की कवायद, यह जानते हुए कि विधायकों का एक बड़ा कुनबा उनके साथ है, हास्यास्पद निर्णय ही लगता है |
अगर हार की जिम्मेवारी लेने और थोपने का इतना ही शौक है, तो शीर्ष नेतृत्व पार्टी की कमान नए चेहरों को क्यूँ नहीं सौंप रही है |
जसवंत सिंह जैसे बरिष्ठ नेता का निकाला जाना, इसी बात को इंगित करता है कि फिलहाल भाजपा मानसिक रूप से अस्वस्थ चल रही है |
लगभग सात सौ पन्नो की उनकी किताब को किसी ने ढंग से पढा भी नहीं होगा और उन्हें निष्कासित कर दिया गया | जसवंत सिंह को इस तरह से दुत्कारा गया कि पार्टी में एक के बाद एक बड़े नेता बगावती बिगुल फूँक रहे हैं |
जसवंत सिंह ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो कि पहले जिन्ना के बारे में न कहा गया हो | सालों पहले डा० अजीत जावेद द्बारा लिखित पुस्तक "जिन्ना की त्रासदी" में इन सब बातों का उल्लेख है | आखिर सच को स्वीकारने में भाजपा को इतनी परेशानी क्यूँ हो रही है |
पहले तो भाजपा खुद तय करे की उसकी विचारधारा क्या है | इस बात को लेकर आम जनता ही नहीं पार्टी के नेताओं में भी संसय बना हुआ है |
पद की लोलुपता को छोड़ कर शीर्ष नेता अब कांग्रेस का विकल्प बनने की सोचे | और यह तभी संभव है जब भाजपा में संघी और गैर संघी के बीच की खाई को पाटा जाय |

Monday, August 24, 2009

क्या कभी बन पाउँगा इनके जैसा बाप

पूछते हैं कभी-कभी
मुझसे मेरे बापू
देता हूँ उनको सलाह
ख़ुशी होती है मुझे
की होती है मेरी भी भागेदारी
घर आपने किसी भी निर्णय में
आखिर मैं भी तो पहनता हूँ
जूता उनके ही नाप का
लगभग बापू के जितना है
चौड़ा मेरा भी सीना
पर लगता है थोडा अंतर तो है
जहाँ मैं हो जाता हूँ ब्याकुल
विचित्लित,हताश और परेशान
वहीँ उन्हें पाटा हूँ
धीर,शांत बिल्कुल गंभीर
विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी
होने ही नहीं देते हैं
किसी भी परेशानियों का आभास
देते रहते हैं खुशियों की घनी छाया
बिल्कुल गावं के पुराने बरगद की तरह
सोंचता हूँ क्या कभी बन पाउँगा
मैं भी इनके जैसा बाप
क्या ला पाऊंगा कभी
ऐसा ही वय्क्तित्व

Thursday, August 20, 2009

मैं तेरा पिया नहीं

कह दिया सबसे, ग़म को पिया नहीं
मानते नहीं मैं तेरा पिया नहीं

जिंदगी को तलाशते-तराशते
पता चला अब तक जिया नहीं

तुम रूठो मैं मनाऊं फिर से
बहुत दिनों से मुहब्बत किया नहीं

जाँचूँ-परखूँ है ज़रुरत ही क्या
मैं राम नहीं तो तुम भी सिया नहीं

अब तक का हिसाब बराबर है शायद
उधार में मैंने मुहब्बत किया नहीं

आतीं हैं कि आना है जायेंगी कहाँ
सागर को आज-तक किसी ने दिया नहीं

Wednesday, August 19, 2009

मुहब्बत कौन निभाएगा

बाद मसरूफियत के जो प्यार बच पायेगा
दंगे धमाके से वो भी कुचला जायेगा

गर इसी तरह नफरत के बीज बोए जायेंगे
मैं गुलाल किसे लगाऊंगा तू गले किसे लगायेगा

कुछ सेवैयाँ खरीद लाया हूँ बाजार से
पर उसमें इदी का प्यार कैसे आएगा

उसे फिक्र है बदनाम हो न जाऊँ कहीं मैं
वो मुसलमान है पता नहीं कब पकड़ा जायेगा

सरियत की बातें करता है आस्था की दुहाई देता है
बता सागर ऐसे में मुहब्बत कौन निभाएगा

:- द्वैमासिक पत्रिका "परिंदे" के अगस्त-सितम्बर 09 अंक में प्रकाशित |

Sunday, August 16, 2009

प्रेम का सागर

जो प्रेम दिल में पनपा था
सब भाव-विह्वल मन का था

चंचल-नटखट भोली सि सूरत
बस देख मन पुलकित होता था

वो प्रेम की स्वाति किरण सि थी
मैं प्यासा चातक दीखता था

वो पुष्प की कोमल पंखुडी सी
मैं बूंद ओस सा लिपटा था

हौले से जब कुछ कहती थीं
मैं मंद-मंद मुस्काता था

वो शशि सि शीतल लगती थी
मैं चकोर सा उनको ताकता था

कुछ कहते-कहते थीं सो गयी वो
सिरहाने मैं उनके बैठा था

वात्सल्य था एक प्रेम में उनके
और मैं बालक बन जता था

मैं अकिंचन करता भी क्या
बस प्रेम का सागर रखता था

बस क्या था, माँ गुस्सा हो गयी

मैंने कहा, मुहब्बत हो गयी
बस क्या था, माँ गुस्सा हो गयी

समझाऊं आखिर कैसे उन्हें
जाने किन ख्यालों में खो गयी

भविष्य के पन्नो को देखते पढ़ते
रात फिर से किसी संशय में सो गयी

स्नेह उनका उन्हें मना ही लिया
थोडा डाँटी, फिर मेरे ही संग हो गयी

गोद में गलतियाँ था सुना रहा मैं
और वो ममता का सागर हो गयी

Thursday, August 13, 2009

मुझे तुमसे प्यार नहीं

वो कहती हैं,
मुझे तुमसे प्यार नहीं|
मैं कुछ नहीं जानती,
भुला दिया सबकुछ|
पूछ बैठा यूँ ही उनसे,
मोतियों की माला कहाँ है|
जरूरत थी मुझे,
जवाब था, पहन रखी हूँ|
मेरे कमरे से एक दिन,
चाय की प्याली लाई थी,
कहाँ है जरूरत थी मुझे|
मेरे ही पास है,
मैं उसी से चाय पीती हूँ|
फिर वो कहने लगी,
मुझे तुमसे प्यार नहीं|

भूलूँ या फिर याद रखूं

मैं नहीं कहता,
मुझे प्यार करो|
मिलो-जुलो मुझसे,
मेरी जरूरतों को पूरा करो|
मैं तो करता भी नहीं,
चर्चा कभी तुम्हारी|
हाँ रोकता नहीं उन्हें,
जो तुझे मुझमे देखते हैं|
बेशक तुम भूल जाओ,
मुझे, मेरी यादों को,
तुम्हारे ही हित में होगा|
आत्म संयम ये तुम्हारा,
जायज है तुम्हारे लिए|
जब मुझे नहीं कोई दिक्कत,
तुम्हारे किसी भी निर्णय से |
फिर तुम्हें क्या है परेशानी,
मैं भूलूँ या फिर याद रखूं|

Wednesday, August 12, 2009

हम बदले हैं कितने

बचपन की शरारतें
अल्हड़पन और नटखाटें|
देखकर मुस्कुराती थी,
कभी-कभी प्यारी चपत,
भी लगाती थी माँ |
वक़्त के साथ-साथ ,
हम बदले हैं कितने,
और हमारी शरारतें भी|
कभी खेलते थे गलियों में,
अब भावनाओं से खेलते हैं|
अब हम कांच नहीं,
दिल तोड़ने लगे हैं|
बदली तो है माँ भी,
अब प्यार भरी चपत नहीं लगाती|
बस घुटती है अपने ही अन्दर,

Tuesday, August 11, 2009

तुझको ग़ज़ल लिखूं

तुझको कमल लिखूं या तुझको ग़ज़ल लिखूं
पाकर तुझे मैं जिंदगी को अब सफल लिखूं


मैं जानता ही कुछ नहीं इसके सिवा सनम
आज तो है तू मेरा तुझको ही कल लिखूं


तू ही मेरी किस्मत है उस खुदा का शुक्रिया
जिंदगी को अब तो मैं सुन्दर सरल लिखूं


शब्दों में तुझको अब मैं बांधूंगा क्या भला
ममता का तुझको मैं अब बस आँचल लिखूं


दूरियों का क्या भला मुहब्बत से वास्ता
पास तुझको ही लिखूं तुझको बगल लिखूं


क्या लिखा है किस्मत में इसकी फिक्र किसे
तेरे नाम जिंदगी का इक-इक पल लिखूं


तारीफ तेरी क्या करूँ मुझको पता नहीं
लिखता हूँ जब भी तुझको मैं तो धवल लिखूं


हिज्र अब लिखूं या प्रेम मैं लिखूं
सागर बता तेरे लिए कैसी ग़ज़ल लिखूं

काश मैं जवान नहीं होता

परेशान, व्यथित रहती है,
इनदिनों मेरी माँ |
पूजा, अर्चना, हवन,
टोना-टोटका न जाने क्या-क्या |
इन्हीं चीजों में व्यस्त,
खुद का ख्याल ही नहीं रखती |
कह दिया उनसे एक दिन,
अम्मा अपना ख्याल रखिये,
थोडा परहेज किया कीजिये |
मेरे ख़त्म होते ही बोल पडी,
तुम्हें अच्छी नौकरी मिल जाये,
तेरा घर बस जाये बस,
सबकुछ छोड़ दूंगी |
बुढी हो गयी हूँ न अब,
जब तक हूँ दुआ कर लूं |
इस उम्र में इतनी परेशानी,
इतना कष्ट मेरे लिए |
सोंचता हूँ काश मैं जवान नहीं होता,
तो अम्मा कभी बुढी नहीं होती |

देखा-सुनी